Saturday, November 23, 2024

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राजधानी लाइव : बाल कल्याण और बजट में कटौती के मायने!

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केंद्र सरकार ने पता नहीं क्या सोचकर श्रम बाल कल्याण बजट में कटौती की है। इसके दुष्परिणाम कितने होंगे, क्या इस बात का थोड़ा भी अंदाजा रहा होगा? शायद नहीं। इस बचकाने कदम के बाद बाल अपराध रोकने के प्रयासों को धक्का लग सकता है। बजट में कटौती तो दूर की बात है, बढ़ाने की मांग बाल अधिकार, बाल संरक्षण कार्यकर्ता लंबे वक्त से करते आए हैं, जबकि कोविड के बाद से ये मांग और तेज हुई है। कोविड महामारी ने देश के असंख्य नौनिहालों को विविध तरीकों से प्रभावित किया है। लाखों की तादाद में बच्चे अनाथ हो गए, शिक्षा बीच में छूट गई, तय समय पर टीके भी नहीं लग सके। इसके अलावा बच्चे शारीरिक, भावनात्मक व संज्ञानात्मक रूप से भी प्रभावित हुए थे। कोविड ने उन्हें न सिर्फ पारिवारिक संकटों में घेरा, बल्कि शिक्षा, पोषण, शारीरिक विकास, बाल अधिकारों से भी वंचित किया। इन सबसे उबरने के लिए उनको बड़े बजट की आवश्यकता है। बच्चों का बजट हमेशा से महिला एवं बाल विकास के साथ जोड़ा जाता है, यानी साझा बजट पेश होता है। अब जरूरतें ऐसी हैं, जिससे साझा बजट अपर्याप्त है। इसलिए सम्मिलित बजट से काम नहीं चलेगा। अलग बजट रखना होगा, तभी उनके अधिकारों, पोषण और शिक्षा के क्षेत्र में गति आएगी। हुकूमतों को अच्छे से पता है। बाल समस्याओं को बुलंद करनेवालों की संख्या बहुत सीमित रहती है। एकाएक जनमानस का ध्यान इस ओर नहीं जाता। इसलिए नहीं जाता है क्योंकि ज्यादातर बच्चों की देख-रेख उनके अभिभावक कर लेते हैं, पर उनका क्या, जिसका कोई नहीं होता, हमारे सहारे होते हैं, सरकारी योजनाओं के बल पर ही टिका होता है उनका बचपन।
केंद्र सरकार को खुद से संज्ञान लेना होगा, क्योंकि नौनिहालों से जुड़ी परेशानियां किसी एक राज्य में नहीं, बल्कि समूचे हिंदुस्थान में बच्चों से संबंधित समस्याओं की भरमार है। जरूरी उनका स्वास्थ्य और पोषण है। ये दो वाजिब जरूरतें ऐसी हैं, जो बच्चों की शुरुआती आश्यकताएं होती हैं और ये तब तक महसूस होती हैं, जब तक बच्चा बाल्यकाल को पार कर किशोरावस्था में प्रवेश नहीं कर जाता। केंद्रीय बजट में इस बार महिला और बाल विकास के लिए २५,४४८ करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जबकि पिछले वर्ष के मुकाबले इस दफे ओवरऑल २६७ करोड़ रुपए ज्यादा है। लेकिन श्रम कल्याण में कटौती कर दी, जो कई तरह के सवाल खड़े करता है, निश्चित रूप से यह बड़ी आबादी के लिए नाकाफी है। उम्मीद थी आम बजट २०२३-२४ में बाल बजट को अलग रूप दिया जाएगा लेकिन वैसा हुआ नहीं? महिला और बच्चों का बजट साझा है, जिसे अलग करने की जरूरत है। क्योंकि महिलाओं और बच्चों की समस्या आपस में मेल नहीं खाती। दोनों की समस्याएं एक-दूसरे से अलग होती हैं। अब दरकार ऐसी महसूस होने लगी है कि न सिर्फ बजट अलग हो, बल्कि मंत्रालय भी अलग होना चाहिए। भारत में बच्चों की स्थिति और उनसे संबंधित मुद्दों को जागरूक करने की आवश्यकता है। इस दिशा में केंद्र व राज्य सरकारों को गंभीरता से कदम उठाने होंगे। केंद्र सरकार ने कोविड महामारी के बाद अनाथ बच्चों के लिए अनगिनत कल्याकारी योजनाएं शुरू कीं, उनका लाभ बच्चों को मिल भी रहा है। बड़ी रकम सरकार ने आवंटन की है। यह तब, जब बजट भी नहीं था। बीच में राज्य सरकारों को दिया, लेकिन कुछ राज्य सरकारों ने उस बजट को दूसरे कामों में इस्तेमाल कर डाला।
पिछले वर्ष के बजट की तुलना अगर मौजूदा बजट से करें तो कुछ तस्वीरें ऐसी सामने निकलकर आती हैं, जिसे देखकर दुख होता है। बीते दो बजट, २०२१-२२ में ८५,७१२.५६ करोड़ और २०२२-२३ में ९२,७३६.५ करोड़ रुपए का था। ये कोरोना के दरम्यान थे, तब दोनों बजट कम पड़ गए थे, केंद्र सरकार को बीच में और बढ़ाना पड़ा था। पिछली बार बजट में पूरे हिंदुस्थान में करीब ७४० एकलव्य मॉडल स्कूलों में ३८ हजार अध्यापकों और सहायक स्टाफ की नियुक्ति की जानी थी, जिनके जिम्मे बच्चों को मॉडर्न शिक्षा देना था, पर अफसोस वैसा हो न सका? योजना जिस गति से आगे बढ़नी थी, बढ़ी नहीं? उसका मुख्य: कारण मॉनिटरिंग अच्छे से न होना था। साथ ही कुछ राज्य सरकारों ने भयंकर उदासीनता भी दिखाई। आदिवासी राज्यों जैसे झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ व अन्य सुदूर क्षेत्रों में इस योजना को तेजी देना था, वो भी न हो सका? ऐसा न होना सरासर बच्चों के हक को कुचलना माना गया। ये ऐसे स्कूल थे, जिनमें करीब साढ़े तीन लाख आदिवासी बच्चे चिह्नित किए गए थे, ताकि उनकी पढ़ाई आधुनिक तरीके से हो सके। इस योजना के लिए इस बार भी बजट दिया है। देखते हैं, आगे क्या होता है। क्या फिर कागजों में बच्चों को पढ़ाया जाएगा। सबसे बड़ी कमी यही है कि बच्चों के अधिकारों के लिए लोग आवाज नहीं उठाते, दूसरे मुद्दों पर उठाते हैं। बच्चों के विकास और कल्याण का जिम्मा महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के सिर होता है। उन पर डबल-डबल जिम्मेदारी होती है। महिलाओं की ही समस्या इतनी होती है, जिसमें मंत्री-अधिकारी अधिकांश व्यस्त रहते हैं इसलिए बाल विकास पर उतना ध्यान नहीं दे पाते, जितना देना चाहिए। दरअसल, इसमें उनका कोई दोष नहीं, अपने से जितना बन पड़ता है, वो करते हैं। नौनिहालों के लिए अलग बाल बजट की मांग इसलिए हो रही है, ताकि उनके हिस्से के बजट से उनके लिए बहुत कुछ किया जा सके, जैसे नेशनल डिजिटल लाइब्रेरियां बनाई जाएं, जिनमें विभिन्न भाषाओं और क्षेत्रों की मनपसंद व बेहतरीन किताबें हों। ये काम पंचायत और ग्राम वॉर्ड स्तर पर भी किया जाए। ग्राम प्रधानों को इसके लिए प्रोत्साहित भी किया जाए। इसके लिए बड़ी टीम और बड़े बजट की आवश्यकता पड़ेगी। गांव-देहातों में जब स्मार्ट क्लासरूम, प्रीसिसन फार्मिंग, इंटेलिजेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बढ़ावा दिया जाएगा तो उनमें शिक्षा की लौ भी जगेगी। छोटा-मोटा काम करने में मस्त बच्चे भी स्कूलों की ओर भागेंगे। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने स्पेशल सेंट्रल अडॉप्शन रिसोर्स, नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स और नेशनल कमीशन फॉर वूमन जैसा स्वायत्त निकायों को १६८ करोड़ रुपए आवंटित किए थे, उनका क्या हुआ, कोई अता-पता नहीं? हुकूमत से कोई ये पूछे कि पिछले बजट यानी २०२२-२३ में प्रावधान किए गए २५,१७२ करोड़ रुपए में कितना पैसा बाल कल्याण में खर्च हुआ तो उसका शायद ही जवाब मिल पाए। आज नहीं तो कल, केंद्र सरकार व राज्य सरकारें बाल विकास के लिए अलग तंत्र स्थापित करने पर विवश होंगे। मंत्री भी अलग होगा, मंत्रालय भी और बजट भी? ऐसा जब होगा, तभी बाल समस्याओं में गिरावट आएगी, कोई अनाथ नहीं कहलाएगा, बच्चे भीख नहीं मांगेंगे, चाइल्ड क्राइम पर नियंत्रण होगा। साथ ही बाल विवाह जैसे कलंक में भी कमी आएगी।