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मौत से बचकर पापा PAK से भारत आए:लोग हमें पाकिस्तानी कहते थे, न खाने को रोटी थी न रहने को घर; आज बिजनेसमैन हूं

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‘1947 में हुए बंटवारे के बाद पापा को सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान से भारत आना पड़ा था। दोस्त-रिश्तेदार, जमीन-जायदाद, घर-बार… सब वहीं रह गया। बस पापा के पास चंद रुपए और शरीर पर कपड़े रह गए।

मां बताती थी कि जिस ट्रेन से मेरे घरवाले आ रहे थे, उसके 6 डिब्बे को अलग कर दिया गया था। इन डिब्बों में जितने भी लोग पाकिस्तान से भारत आ रहे थे, सभी का कत्ल कर दिया गया। सिर्फ एक डिब्बा बचा था, जिसमें मेरे घरवाले थे। वो लोग बचकर पंजाब के पठानकोट आ गए।

पापा का पाकिस्तान में बहुत बड़ा बिजनेस था, लेकिन भारत आने के बाद कुछ नहीं रहा। न खाने को रोटी थी, न रहने को घर। कुछ साल बाद इसी शोक में उनकी मौत हो गई। पीछे मां और हम 6 भाई-बहन रह गए। उस वक्त मैं महज डेढ़ साल का था। ये 1952 की बात है।’

जयपुर के बड़े बिजनेसमैन और एंटरप्रेन्योर्स में शुमार पीके आनंद पुरानी और धुंधली पड़ चुकी कुछ ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों को उलट-पुलट करते हुए जब ये बातें बताते हैं, तो उनका गला भर आता है। आंसू टपकना तो चाह रहे होते हैं, लेकिन संघर्ष तले उम्र इसकी इजाजत नहीं देता।

बगल में उनकी पत्नी स्नेहा आनंद भी बैठी हुई हैं, जो एस्ट्रोलॉजिस्ट हैं। ऊंची और गंभीर आवाज में गुमसुम हुए आनंद को ढांढस बंधाने की कोशिश करती हैं। कुछ देर ठहरने के बाद आनंद मुझे अपने पुराने दिनों में लेकर चलते हैं।

वो बताते हैं, ‘मैं तो गोद में था। मां कहती थी कि पाकिस्तान से भारत आने के बाद जब अचानक से पापा की मौत हो गई, तो ऐसा लगा मानो सब कुछ खत्म हो गया। मैं 6 भाई-बहन में सबसे छोटा था। घर की पूरी जिम्मेदारी मां के ऊपर आ गई।

कुछ समय बाद पठानकोट में जो रिश्तेदार थे, उनसे थोड़ी बहुत मदद मिलने लगी, लेकिन पराए आखिर कितने दिनों तक किसी की जिम्मेदारी उठाते हैं। इसी दौरान पता चला कि सरकार पाकिस्तान से लौटे लोगों को मुआवजा दे रही है। हम लोगों से कहा गया कि इसके लिए लखनऊ आना पड़ेगा। यहां हमारे एक जानने वाले रिश्तेदार थे। उन्हीं के यहां हम रहने लगे।

ससे पहले कुछ महीने के लिए हम लोग अंबाला और दिल्ली भी गए थे। यहां मेरे नाना-नानी और कुछ दूसरे रिश्तेदार रह रहे थे, लेकिन रहने की जगह नहीं मिली तो अंत में लखनऊ चले गए।’

जिन तस्वीरों के सहारे आनंद अपनी कहानी बयां कर रहे हैं, उसमें उनकी मां के अलावा बड़े भाई की भी फोटो है, जिनकी पिछले महीने ही मौत हुई है। आनंद के पास अपने पिता को याद करने के लिए कोई तस्वीर नहीं है।

पीके आनंद के हाथ में उनकी मां की तस्वीर है, जिनकी साल 1994 में मौत हो गई थी।
पीके आनंद के हाथ में उनकी मां की तस्वीर है, जिनकी साल 1994 में मौत हो गई थी।

आनंद इन तस्वीरों को समेटते हुए कहते हैं, ‘उसी वक्त झांसी का डेवलपमेंट चल रहा था। इसमें नौकरी के लिए शर्त थी कि कोई कैंडिडेट हाई स्कूल पास हो। संयोग से मेरे बड़े भाई ने हाई स्कूल पास किया था, उन्हें नौकरी मिल गई।

हम लोग लखनऊ से झांसी आ गए। मैं भी समझदार होने लगा था। बड़े भाई को इतनी तनख्वाह नहीं मिल रही थी कि गुजारा भी सही से हो पाए। कभी रोटी मिलती, तो कभी नहीं मिलती। कभी-कभी तो हमें भूखे ही सोना पड़ता। दूध तो कोसों दूर…।

कहते हैं न गरीब का बच्चा जल्दी बड़ा हो जाता है। उसे पेट सबसे पहले दिखता है। वही हम लोगों के साथ हुआ। मां ने घर पर ही कपड़ों की सिलाई करनी शुरू कर दी। हम तीन भाई पढ़ाई के साथ-साथ पेन-पेंसिल बेचने लगे। बाद में मजदूरी भी की।’

जैसे कोई सुन्न पड़ जाता है। कहते-कहते आनंद फिर रुक जाते हैं।

फिर क्या हुआ?

मानो मैं उन्हें जगाने की कोशिश कर रहा हूं।

आनंद सचेत होते हुए कहते हैं, ‘हमारे साथ त्रासदी ऐसी थी कि लोग हमें एक्सेप्ट तक नहीं करना चाह रहे थे। उन्हें डर होता था कि हम उनकी संपत्ति हथिया लेंगे। लूट-पाट कर लेंगे। जब मेरा एडमिशन एक स्कूल में हुआ, तो दुर्भाग्य ऐसा कि स्कूल के प्रिंसिपल, स्टूडेंट कहने लगे- ये पाकिस्तानी है, पाकिस्तान से आ गया है। पंजाबी है, सिंधी है। दंगा-फसाद करेगा।

मैं अपनी क्लास में अकेला पंजाबी स्टूडेंट था। टीचर की देखा-देखी क्लास के बच्चे भी कहने लगे- अरे! ये तो पाकिस्तानी है, पंजाबी है। वहां चावल खाने को मिलता था। अब यहां गेहूं खाएगा।’

70 की उम्र में भी आनंद के कमरे में दर्जनों किताबें भरी हुई हैं।

फिर आपने पढ़ाई कैसे की?

मेरे इस सवाल पर उम्मीद भरी नजरों से आनंद कहते हैं, ‘जब स्कूल में पाकिस्तानी कहकर मुझे बुलाया जाने लगा, तो मैं डर गया। कोई हमें इंसान या हिंदुस्तानी नहीं समझता था। गली-मोहल्ले में भी कोई ढंग से बात नहीं करना चाहता था।

हालात ऐसे हो गए कि मैंने स्कूल जाना छोड़ दिया। 10 साल की उम्र रही होगी, मैं 15 दिन तक घर में कैद रहा। मां ने जब पूछा और मैंने सारे हालात बयां किए, तो वो भी शॉक्ड रह गईं। लेकिन जहां बुरे लोग होते हैं, वहां अच्छे लोग भी होते हैं। जिस स्कूल में मेरे बड़े भाई पढ़ते थे, मां ने वहां के प्रिंसिपल से बातकर मेरा एडमिशन करवा दिया और मेरी पढ़ाई फिर से चलने लगी। इसी दौरान एक घटना घटती है, जिसकी वजह से हम सभी जयुपर आ गए।

आनंद 1960-70 की एक बात बताते हैं। कहते हैं, ‘एक बार की बात है। मेरा एक भाई ट्रैवल कर रहा था। इसी दौरान उसका सब कुछ चोरी हो गया, बैग-डॉक्यूमेंट सब कुछ…। यह डॉक्यूमेंट कबाड़ का काम कर रहे एक कारोबारी को मिल गया। वो व्यक्ति इतना ईमानदार था कि उन्होंने चिठ्ठी लिखकर भाई को बताया कि उनके पास डॉक्यूमेंट है। वो बड़े कारोबारी थे।

जब घर के हालात के बारे में उन्हें पता चला, तो उन्होंने भाई की नौकरी की सिफारिश जयपुर की एक कंपनी में कर दी। इसी दौरान एक भाई ने रेलवे में अप्लाई किया और उनकी नौकरी वेस्टर्न रेलवे में हो गई। जिसके बाद हम सभी लोग झांसी से जयपुर आ गए।

जयपुर के जमुना नगर इलाके में आनंद का बड़ा-सा घर है। अपने घर को निहारते हुए आनंद कहते हैं कि जब वो लोग जयपुर आए थे, तो यहां भी उन्हें भेदभाव का काफी सामना करना पड़ा।

वो कहते हैं, ‘रेलवे में भाई की नौकरी लग गई, लेकिन यहां भी रहने के लिए घर नहीं था। कुछ दिनों तक हमें धर्मशाला में रहकर गुजारा करना पड़ा। जब हम लोग किराए के लिए फ्लैट पूछने के लिए जाते, तो लोग पाकिस्तानी, सिंधी, पंजाबी सुनकर भगा देते थे। कहते थे, ‘इन्हें मकान मत देना, लड़ाई-झगड़ा करेंगे। पाकिस्तानी हैं।

बड़ी मशक्कत के बाद भाई के दोस्त ने एक मकान किराए पर दिलवाया, जहां हम लोग पूरे परिवार के साथ रहने लगे। धीरे-धीरे घर के हालात थोड़े ठीक होने लगे, लेकिन इतना भी नहीं हो गया था कि हम लोग सामान्य जिंदगी जीने लगे।

दो वक्त की दाल-रोटी मिलने लगी थी, लेकिन पढ़ाई के पैसे जुटाना मुश्किल था। मैं 8वीं क्लास में था, गली में ही ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। उस वक्त 5 रुपए मिलते थे। धीरे-धीरे मेरा इंटरेस्ट पेंटिंग और ड्रॉइंग में होने लगा। मैंने इसे बनाकर बेचना शुरू किया। किसी की शादी होने पर उसके मैरिज कार्ड पर स्केच करता था। इससे भी कुछ रुपए मिल जाते थे।

कुछ समय बाद नाइट में ऑर्केस्ट्रा, म्यूजिक पार्टी में गाना गाने लगा। इससे जो रुपए मिलते थे, उससे पढ़ाई का खर्च निकालने लगा। दरअसल, मां का सिर्फ यही कहना था कि कुछ भी करो, लेकिन पढ़ाई भी करो।

ये जो घर आप देख रहे हैं, इसे मैंने कई टुकड़ों में धीरे-धीरे करके बनाया है। मजदूर के साथ मजदूरी करके मैंने ये घर तैयार किया है। इसी बीच आनंद की पत्नी कहती हैं, ‘हमारी शादी से पहले तक तो कुछ भी नहीं था। हम दोनों ने मिलकर ये ‘बागवान’ तैयार किया है।’

तस्वीर में पीके आनंद अपनी पत्नी स्नेहा आनंद के साथ हैं।
तस्वीर में पीके आनंद अपनी पत्नी स्नेहा आनंद के साथ हैं।

आनंद 80 के दशक की बात बताते हैं। कहते हैं, ‘मेरे भाई की शादी हुई थी, मैं उनके ससुराल गया था, जहां हमारी मुलाकात हुई थी। स्नेहा के परिवार वाले बड़े बिजनेसमैन हैं। जब हमने अपनी शादी की बात घर वालों के सामने रखी तो सभी इसके खिलाफ हो गए।

उन लोगों का कहना था कि तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है, स्नेहा खुश कैसे रहेगी। काफी मान-मनौव्वल के बाद हमारी शादी हुई और उसके बाद हम दोनों ने मिलकर संघर्ष करना शुरू किया।’

आनंद मुझे दूसरे कमरे में लेकर चलते हैं। दीवार पर कुछ पुरानी तस्वीरें लगी हुई हैं। वो कहते हैं, ‘ग्रेजुएशन करते-करते मेरी नौकरी एक प्राइवेट कंपनी में लग गई। इसे मैं अपनी लाइफ का टर्निंग पॉइंट मानता हूं। उसी के बाद मुझे बिजनेस में इंटरेस्ट आने लगा।

मैंने एक पार्टनर के साथ मिलकर बिजनेस की शुरुआत भी की थी, लेकिन कुछ महीने बाद ही उसने बिजनेस में लॉस बताकर धोखा दे दिया। इसमें करीब 10 लाख का नुकसान हुआ था। जितने भी वर्कर काम कर रहे थे, सभी को अपनी जेब से सैलरी देनी पड़ी थी।

उसके बाद मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्स का कारोबार करना शुरू किया। दिल्ली, मुंबई जाकर थोक में इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्स लाता और जयुपर शहर में बेचता। मेरे पास इतनी भी पूंजी नहीं थी कि साथ में किसी स्टाफ को रख लेता या बड़ा कोई स्टोर खोल लेता। 10 रुपए जेब में और रोटी साथ में रखता था।’

आनंद कहते हैं कि जब उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स का बिजनेस शुरू किया था तो हर रोज नए-नए कंस्ट्रक्शन साइट्स पर जाकर ऑर्डर के लिए रिक्वेस्ट करते थे।
आनंद कहते हैं कि जब उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स का बिजनेस शुरू किया था तो हर रोज नए-नए कंस्ट्रक्शन साइट्स पर जाकर ऑर्डर के लिए रिक्वेस्ट करते थे।

वो कहते हैं, ‘शुरुआत में तो लोगों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता था। यदि किसी डील में 500 रुपए का प्रॉफिट भी दिखता, तो मैं दिल्ली चला जाता और वहां से सामान लेकर अगले दिन जयपुर चला आता। बाद में पत्नी ने बिजनेस को संभालना शुरू किया और मैं सेल्स, मार्केटिंग का काम देखने लगा।

धीरे-धीरे जब बिजनेस की समझ हो गई, तो हमने बड़े-बड़े कॉर्पोरेट हाउस के साथ डील करना शुरू कर दिया। कुछ साल बाद शहर के बड़े इलेक्ट्रॉनिक्स कारोबारियों में मेरा नाम शामिल हो गया। बाद में मुझे कई बिजनेस ग्रुप का प्रेसिडेंट बनाया गया।

आज मेरे पास सब कुछ है। गाड़ी, बंगला, पहचान…। दूसरे लोगों को बिजनेस करने को लेकर गाइड भी करता हूं। उन्हें कंसल्टेंसी देता हूं। अब मैं इलेक्ट्रॉनिक्स के साथ-साथ सोलर एनर्जी पर वर्क कर रहा हूं। आज मेरा बेटा जर्मनी में काम कर रहा है।’