Saturday, November 23, 2024

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क्षेत्रीय दलों से कांग्रेस गठजोड़ आसान नहीं

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पूर्व की कांग्रेस गठबंधन सरकार में क्षेत्रीय दलों ने मनमानी करके कांग्रेस की जमकर फजीहत कराई थी। टू जी स्पैक्ट्रम सहित दूसरे घोटालों में क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की काफी किरकिरी कराई। इनकी खींचतान और अराजकता का खामियाजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है। भाजपा ने कांग्रेस शासन के दौरान हुए भ्रष्टाचार को अभी तक मुद्दा बनाए रखा है। भाजपा ने ऐसे ही अन्य मुद्दों पर कांग्रेस को घेरने में कसर बाकी नहीं रखी। सत्ता में आने के बावजूद क्षेत्रीय दलों को मनमानी करने से रोकने की ताकत कांग्रेस में नहीं होगी…

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने खुद को प्रधानमंत्री की दावेदारी से अलग कर लिया। राहुल के लिए नीतिश ने कहा कि यदि राहुल का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे आता है तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं है। सवाल यह है कि नीतिश कुमार ने तो मान लिया पर क्या सारे विपक्षी दल राहुल गांधी को आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का अपना संयुक्त उम्मीदवार बनाने पर सहमत हो सकते हैं। राहुल गांधी ने भी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान परोक्ष तौर पर ऐसी ही मंशा जाहिर की थी। राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के दौरान विपक्षी दलों से एकजुटता का आह्वान किया। इस आह्वान के पीछे राहुल गांधी की मंशा आगामी लोकसभा चुनाव में संयुक्त विपक्षी दल के प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी उम्मीदवारी पेश करना है। प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए राहुल गांधी ने स्पष्ट तौर पर बेशक कुछ नहीं कहा किन्तु उनके बयान से उनकी दबी हुई मंशा साफ जाहिर होती है। राहुल गांधी ने कहा कि कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसका देशव्यापी नेटवर्क है। समाजवादी पार्टी का नाम लेते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने कहा कि क्या इस पार्टी की पॉलिसी केरल-कर्नाटक में लागू होती है। उन्होंने कहा कि केवल कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है, जिसकी राष्ट्रव्यापी नीतियां और नेटवर्क है। नीतिश कुमार ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से खुद को अलग कर लिया हो लेकिन दूसरे क्षेत्रीय दलों ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं।

क्षेत्रीय दलों के लिए राहुल की स्वीकार्यता आसान नहीं हैं। विपक्षी दलों का यह प्रयास यदि सफल हो भी जाता है, तब भी इसकी हालत भानुमति के कुनबे जैसी होगी। इन दलों के प्रमुखों का ख्वाब भी प्रधानमंत्री की दावेदारी का है। विपक्षी दलों की तस्वीर अभी स्पष्ट नहीं है। यही वजह है कि नीतिश के अलावा किसी भी क्षेत्रीय दल ने अभी तक राहुल गांधी के नाम को आगे नहीं बढ़ाया है। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से क्षेत्रीय दलों ने दूरी बनाए रखी। हर दल के प्रमुख ने कोई न कोई बहाना बना कर राहुल और कांग्रेस को इस यात्रा का श्रेय देने से बचने का प्रयास किया। मुद्दा यह नहीं है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं। सवाल यह है कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में कैसा प्रदर्शन कर पाती है। लोकसभा में मिलने वाली सीटों पर ही कांग्रेस की दावेदारी को दम मिलेगा। इसके लिए कांग्रेस को सिर्फ प्रतिद्वन्द्वी भारतीय जनता पार्टी से ही नहीं बल्कि विपक्षी दलों से भी जूझना होगा। कांग्रेस का सीटों के बंटवारे को लेकर गैरभाजपा दलों से गठबंधन आसान नहीं है। विपक्षी दलों मेें यदि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर आती है, तभी राहुल गांधी की पीएम बनने की दावेदारी में कुछ दम हो सकता है। इससे विपक्षी दलों पर राहुल गांधी की दावेदारी का दवाब बढ़ जाएगा। फिर भी क्षेत्रीय पार्टियां आसानी से राहुल की दावेदारी को पचा नहीं पाएंगी। राहुल गांधी की पीएम पद की दावेदारी से पहले कांग्रेस के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं। इनसे पार पाना भी कांग्रेस के लिए लोहे के चने चबाने जैसा है। उनमें सबसे बड़ी चुनौती है लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन में पर्याप्त सीटों पर दावेदारी जताना। यह निश्चित है कि क्षेत्रीय दल कांग्रेस से गठबंधन करते भी हैं तो नाममात्र की सीटों पर ही करेंगे। क्षेत्रीय दल अपने जनाधार वाले राज्य में आसानी से सीटों का बंटवारा करने पर सहमत नहीं होंगे। क्षेत्रीय दल बंटवारे में कांग्रेस को ज्यादा सीटें देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कभी नहीं करेंगे। कांग्रेस क्षेत्रीय दलों से समझौता करती भी है तो बदले में क्षेत्रीय दल भी उसके जनाधार वाले राज्यों में सीटों की मांग कर सकते हैं, खासतौर से ऐसे क्षेत्रीय दल जिनकी कांग्रेसशासित राज्यों में भौगोलिक सीमाएं लगती हैं। राहुल के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब में क्षेत्रीय दलों से गठबंधन के साथ कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति भी कम बड़ी बाधा नहीं है। कांग्रेस का देश के प्रत्येक राज्य में नेटवर्क है। अभी इस नेटवर्क की हालत मरणासन्न है। कांग्रेस के लिए संगठन को जुझारू और व्यापक बनाना टेड़ी खीर है। कांग्रेस ने बेशक गांधी परिवार से इतर मल्लिकार्जुन खडग़े के रूप में पार्टी का नया अध्यक्ष चुन लिया हो, पर संगठन में जान फूंकने की शक्ति खडग़े में नजर नहीं आती। कांग्रेस में व्याप्त अनुशासनहीनता और दूसरी समस्याएं हैं। राजस्थान में सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच टकराव इसका बड़ा उदाहरण है।

यह कई महीनों से चल रहा है। कांग्रेस आलाकमान मल्लिकार्जुन खडग़े की हालत भी राहुल जैसी है। खडग़े भी राजस्थान की समस्या को सुलझाने में नाकाम रहे हैं। राहुल और प्रियंका गांधी से संगठन के मामले में निर्णय करने की उम्मीद नहीं है। गांधी परिवार के इन दोनों सस्दयों की लोकसभा चुनाव में स्टार प्रचारक की भूमिका हो सकती है। संगठन स्तर पर मजबूती का काम पार्टी अध्यक्ष खडग़े को अपने बूते ही करना होगा। सीटों के बंटवारे के अलावा कांग्रेस का क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी एजेंडा तय करना आसान नहीं है। क्षेत्रीय दलों के अपने राजनीतिक निहित स्वार्थ हैं और कांग्रेस के समक्ष राष्ट्रीय और विदेश नीति महत्वपूर्ण है। क्षेत्रीय दलों का विदेश नीति से कोई सरोकार नहीं है, जबकि कांग्रेस के लिए यह प्रमुख मुद्दा है। कांग्रेस चीन के मुद्दे को लेकर केंद्र की भाजपा सरकार पर हमलावर रही है। ऐसे में क्षेत्रीय दलों का पूरा जोर इस बात पर ही रहेगा कि लोकसभा चुनाव में जो भी मिलाजुला चुनावी घोषणा पत्र तैयार हो उसमें उनके हिस्से में भी कुछ आना चाहिए। कांग्रेस में अब इतनी कुव्वत नहीं रही कि अपने बलबूते लोकसभा लायक बहुमत जुटा सके। इसके लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों की बैसाखियों का सहारा लेना पड़ेगा। कांग्रेस के समक्ष तीसरी सबसे बड़ी चुनौती सत्ता में भागीदारी है। कांग्रेस गठबंधन यदि सत्ता में आता भी है तो मंत्री पदों के बंटवारे पर क्षेत्रीय दलों को साधना पहाड़ लांघने से कम नहीं होगा। हर क्षेत्रीय दल की कोशिश रहेगी कि उसके हिस्से में मलाईदार महकमा आए। रेल, वित्त और गृह मंत्रालय पर सबका जोर रहेगा। लोकसभा सभा में सांसदों की संख्या बल के आधार पर क्षेत्रीय दल मंत्री पद की मांग को लेकर कांग्रेस की बांह मरोडऩें में कसर बाकी नहीं रखेंगे। इसके बावजूद भी इस बात की गारंटी नहीं है कि क्षेत्रीय दल सरकार को आसानी से चलने देंगे। क्षेत्रीय दलों से सत्ता के लिए किए गए गठबंधन में कांग्रेस कडुवे अनुभव पहले ही झेल चुकी है।

पूर्व की कांग्रेस गठबंधन सरकार में क्षेत्रीय दलों ने मनमानी करके कांग्रेस की जमकर फजीहत कराई थी। टू जी स्पैक्ट्रम सहित दूसरे घोटालों में क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की काफी किरकिरी कराई। इनकी खींचतान और अराजकता का खामियाजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है। भाजपा ने कांग्रेस शासन के दौरान हुए भ्रष्टाचार को अभी तक मुद्दा बनाए रखा है। भाजपा ने ऐसे ही अन्य मुद्दों पर कांग्रेस को घेरने में कसर बाकी नहीं रखी। सत्ता में आने के बावजूद क्षेत्रीय दलों को मनमानी करने से रोकने की ताकत कांग्रेस में नहीं होगी। क्षेत्रीय दलों के लिए यह कोई मायने नहीं रखता कि राष्ट्रहित पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है। उनका उद्देश्य किसी न किसी तरह अपने स्वार्थों की पूर्ति करने पर रहेगा। क्षेत्रीय दल अपने जनाधार वाले राज्यों में विकास पर ज्यादा जोर देंगे। ऐसे में क्षेत्रीय दलों में ही आपस में रस्साकशी होना तय है। इस हालत में आपसी तालमेल को टूटने से रोकना अवश्यंभावी है।