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1947 में जब भारत आजाद हुआ था तब जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल था 2,22,236 वर्ग किलोमीटर जिसमें से चीन और पाकिस्तान ने मिलकर लगभग आधे जम्मू-कश्मीर पर कब्ज़ा किया हुआ है और भारत वर्ष के पास केवल 1,02,387 वर्ग किलोमीटर कश्मीर भूमि शेष है।जम्मू-कश्मीर के जो भाग आज हमारे पास नहीं हैं उनमें से गिलगिट, बाल्टिस्तान, बजारत, चिल्लास, हाजीपीर आदि हिस्से पर पाकिस्तान का सीधा शासन है और मुज़फ्फराबाद, मीरपुर, कोटली और छंब आदि इलाके हालांकि स्वायत्त शासन में हैं परंतु ये इलाके भी पाक के नियंत्रण में हैं।
पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुज़फ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र “कृष्ण-गंगा” नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात् शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे माँ शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था।
जिस दिन से माँ शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर “नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी / त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में” कहते हुये उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर माँ शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में,नीलमत पुराण वहीं रची गई,चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गये, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केश्वर महादेव का वर्णन सर्व-प्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई। चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवनशिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर क्योंकि उसपर माँ शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान् देखे जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई इतना भी विद्वान् हो सकता है। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था जहाँ दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे।
माँ शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षों से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था जहाँ भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिये कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल माँ के दर्शन करने जाया करते थे।
शास्त्रों में एक बड़ी रोचक कथा मिलती है कि कथित निम्न जाति के एक व्यक्ति को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम उस दम्पति ने शांडलि रखा। शांडलि बड़े प्रतिभावान था। उनसे जलन भाव रखने के कारण कुछ लोगों ने उनका यज्ञोपवित संस्कार करने से मना कर दिया। निराश शांडलि को ऋषि वशिष्ठ ने माँ शारदा के दर्शन करने की सलाह दी और उनके सलाह पर जब वो वहां पहुँचे तो माँ ने उन्हें दर्शन दिया उन्हें नाम दिया ऋषि शांडिल्य। आज हिन्दुओं के अंदर हरेक जाति में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है।
हिन्दू धर्म का मंडन करने निकले शंकराचार्य जब शारदापीठ पहुँचे थे तो वहां उन्हें माँ ने दर्शन दिया था और हिन्दू जाति को बचाने का आशीर्वाद भी। उन्हीं माँ शारदा की कृपा से कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया था जब वो उनके दर्शनों के लिये वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने बाप सिकंदर द्वारा किये हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की किताबों में आता है कि माँ शारदा की उपासना में वो इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी।
भारत के कई हिस्सों में जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तो बटु को कहा जाता है कि तू शारदा पीठ जाकर ज्ञानार्जन कर और सांकेतिक रूप से वो बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे पढ़ता है और फिर कुछ समय पश्चात् इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वो विद्वान् बनकर वहां से लौट आ रहा है।
एक समय था जब ये सांकेतिक संस्कार एक दिन वास्तविकता में बदलता था क्योंकि वो बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था मगर आज दुर्भाग्य से हमारी “माँ शारदा” हमारे पास नहीं है और हम उनके पास जायें ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है तो शायद अब यज्ञोपवीत की ये रस्म सांकेतिक ही रह जायेगी सदा के लिये।
हमको शारदापीठ की मुक्ति चाहिये, हमको शारदा पीठ तक जाना है, हमें दुनिया को बताना है कि “केवल शारदा संस्कृति ही कश्मीरियत” है और इसलिये शारदापीठ पर भारत का पूर्ण नियंत्रण हो ऐसी मांग उठाइये और जब तक ये नहीं होता कम से कम तब तक करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तर्ज़ पर “शारदादेवी कॉरिडोर” अविलम्ब आरंभ हो इसकी मांग कीजिये।
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