हिमाचल की विभिन्न लोक नृत्य विधाओं को संजोए हुए है सिरमौर
हिमाचल देवी देवताओं की भूमी है यहं की मिट्टी के कण कण में देवताओं का वास रहा है। लोक जीवन तथा सांस्कृतिक दृष्टि से हिमाचल को तीन भागों में विभक्त किया गया है। पहला कांगड़ी भाग जहां डोगरी का प्रभाव हैैे।नाहन, राजन पुंडीर। हिमाचल देवी देवताओं की भूमी है, यहं की मिट्टी के कण कण में देवताओं का वास रहा है। लोक जीवन तथा सांस्कृतिक दृष्टि से हिमाचल को तीन भागों में विभक्त किया गया है। पहला कांगड़ी भाग, जहां डोगरी का प्रभाव हैैे। दूसरा किन्नरी क्षेत्र, जहां भोटी का प्रभाव है ओर तीसरा महासूवी क्षेत्र जिसमें मुख्यत: जिला सोलन, शिमला तथा सिरमौर है।यहां विभिन्न रस्मों व मौसम के आधार पर गाए जाने वाले गीतों तथा नृत्यों के अनूठे रंग हैं। महासुवी क्षेत्र के सिरमौर जिला की लोक संस्कृति अपने आप में एक अलग पहचान बनाए हुए है। यहां का जनजीवन सुबह से शाम, जन्म से मृत्यु तक लोक संगीत से बंधा हुआ है। सिरमौर तथा आसपास के क्षेत्रों में लोक संस्कृति व लोक मान्यताओं के चलते वर्ष का आरम्भ चैत्र मास से माना जाता है। ठोडा नृत्य : ठोडा नृत्य का संबंध महाभारत काल से माना जाता है। ठोडा कनैत राजपुतों के शाठड़ व पॉशड़ दो दलों के बीच खेला जाता है।ऐसी मान्यता है कि महाभारत युद्व के समय कुछ सैनिक लड़ते लड़ते गीरि नदी ओर टौंस की राह से हिमाचल के महासुवी क्षेत्र व उत्तराखंड के जौसार बाबर तक पहुंचे तथा एक दूसरे पर घात लगाकर युद्व करते रहे। सदीयों तक ये सिलसिला चलता रहा, जिसमें समय समय पर जान माल का काफी नुकसान दोनों बिरादयों को झेलना पड़ा। जिस कारण ढुण्डू-कमरावली तथा अजबा झांखों जैसी सैकड़ों लोक गाथाओं, हारों, बारों, पवाड़ों का जन्म भी हुआ। तब किसी युगद्रष्टा ने क्षेत्र के बु़िद्वजिवियों को एकत्र कर सदियों से चले आ रहे वैमनस्य को ठोडा खेल में परिवर्तित किया। आज के युग मे हमें ठोडा नृत्य युगों-युगों पुरानी युद्व परंम्परा धर्म की विजय ओर अधर्म की पराजय की याद दिलाता है।दीपक नृत्य : दीपक नृत्य, नृत्य शैली द्वारा अराध्य ईष्ट देव की अराधना करने की एक नृत्य अभियक्ति है। कलाकार पानी से भरी गड़वी को सिर पर उल्टा रख कर तथा उस पर चार भूजाओं वाले जलते हुए दीपक को रख कर सॉष्टॉग प्रणाम करते हुए जमीन पर पड़े रूमाल को मुंह से उपर उठाते है तथा गीतों में ईन्द्र देव का अवतार माने जाने वाले बिजट महाराज की शक्ति का बखान करते हैं।
रिहाल्टी गी अथवा मालानृत्य एवं रासा नृत्य : रिहाली, हरियाली का अपभंष माना जाता है। जिस प्रकार सावन माह में सभी पेड़ पौधे एक साथ हिलोरे लेते नजऱ आते है। उसी प्रकार रिहाल्टी गी में भी सभी नर्तक एक लय ताल में एक साथ झूमते हुए नृत्य करते है। रिहल्टी गी अथवा माला नृत्य में सभी महिला पुरुष एक साथ कई घंटों तक नृत्य करते आनंद लेते हैं। रासा नृत्य की उत्पति रास शब्द से मानी जाती है, जिस प्रकार भगवान कृष्ण गोपियों के संग रास रचाते नृत्य करने थे, उसी प्रकार सिरमौर जिला के युवक व युवतीयां बाहों में बाहें डालकर झुकते मुस्कुराते रासा नृत्य करती हैं।परात नृत्य : परात नृत्य का संबंध भगवान विश्णु द्वारा धारण किए गए सुदर्शन चक्र से माना जाता है। एक अंगुली पर घूमती हुई परात ठीक सुदर्शन चक्र की भांति नजऱ आती है। परात नृत्य आकर्षण व हैरत का विषय तब बनता है। जब लोक नृर्तक अंगुली पर धूमती हुई परात को हवा में उछाल कर लकड़ी या बांस की छड़ी पर नियंत्रित करते हुए नृत्य करते हैं।
भड़ाल्टू नृत्य : चूड़धार की खूब सूरत दासतां में जहां शिरगुल महाराज की महिमा कुदरत की किताब में सूर्खरू है। वहीं गडरिए के इस लोक नाट्य भड़ाल्टू स्वांग में भी कुदरत की आगोश में एक दासतां दर्ज की है। अचानक वो कटे सिर का एक भूत बनकर, जिसे लोग बणशीारा कहने लगे अर्थात बिना सिर का भड़ाला गडरिया लोगों को डराता था। भेड़ पालक काफी डरते रहे न जाने शिरगुल महाराज की कृपा ने उन्हें शौज ओर भादों की संक्राती को भड़ालटी संग्रान्द के नाम से नामांकित करने का अजूबा दे दिया। बस एक बड़ी आग घेना जलाकर उसमें मोटे आटे की रोटीयां शिरगुल पुजा के लिए भोग के रूप में बनाना शुरू किया और ये भड़ाले इस शरद की सुहानी रात में नृत्य करते पुजा करते सुबह उस राख में पकी रोटियों का भोग लगाते गर्म इलाके की ओर जिसे नोइड़ा कहते हें की ओर चले जाते थे और इस प्रकार उन्होंने देव कृपा से बनशीरा से निजात तथा एक संस्कृति को जन्म दिया।सिंहटू नृत्य : सिंहटू, सिरमौरी भाषा में शेर के बच्चे को कहा जाता है तथा सिंह को मां दुर्गा भगवती का वाहन भी माना गया है। यह दूर्लभ परंम्परा मंदिर स्थलीयों से आदिकाल से जुड़ी हुई है। आज भी सिरमौर जिला के मटलोड़ी कुप्फर ओर लेउ नाना गांव में देवता की पालकी के समक्ष ‘सिंहटू नृत्य’ दीपावली और एकादश के दिन वर्ष भर में केवल दो बार ही किया जाता है। सिंहटु नृत्य में सीं, रीछ, राल, बणमाणुश, पोंछी, बोईओर, मोरोद तथा अन्य काष्ठ के मुखौटों का नृत्य किया जाता है। सिंहटू नृत्य जहां पुरातन संस्कृति तथा आदिकालीन सिंहटू नृत्य का बोध कराता है, वहीं आज के युग में यह नृत्य पर्यावरण और वन्य प्राणी संरक्षण का संदेश भी देता हैे।
स्वांग : भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को पांचवा वेद माना गया है, क्योंकि नाटक जीवन की जीवित परछाई है यहीं बात ‘स्वांगों’ की है।
ऐसा मानना है कि स्वांग अधिक प्राणवान और प्रभावशाली है, क्योंकि उसमें आलेख का बंधन या प्रयोग नहीं है। हिमाचली संस्कृति में स्वॉग को लोकनाट्य का उच्च पद प्राप्त है। आलेखों के आधार पर प्रस्तुत किए जाने वाले नाटकों से स्वॉग प्रस्तुत करना कहीं अधिक कठिन है। जिस प्रकार स्वांगों में आलेख का बंधन नहीं है, ठीक उसी प्रकार यह मंच के मामलें में भी स्वतन्त्र एवं बन्धन मुक्त है। स्वांग कहीं भी, खुले में, पहाड़ की ढलान पर, सांझे आंगन में या घर के आगे या पीछे, खलिहान या चौराहे पर किया जा सकता है।
स्वांग में बड़ी से बड़ी बात एक छोटे से वाक्य में कहने की कला लिए हुए है। लोक नाट्य स्वॉग मनोरंजन का सबसे श्रेष्ठ और साफ सुथरा साधन है। यह किसी भी भावना को उजागर करने का श्रेष्ठ व रोचक तरीका है। करियाला के विभिन्न स्वांग जीवन के विभिन्न पहलुओं को बखूबी पेश करते हैं। लोकनाट्य की घटनाएं दर्शक को अपने परिवेश की घटनाएं लगती हैं। इसलिए लोक संस्कृति में स्वॉग का बहुत महत्व है।