Monday, November 25, 2024

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जम्हूरियत के फलों का स्वाद लेने का दौर आ चुका, दो साल पहले भारत का हिस्सा होते हुए भी विमुख नजर आता था जम्मू-कश्मीर

जम्हूरियत के फलों का स्वाद लेने का दौर आ चुका, दो साल पहले भारत का हिस्सा होते हुए भी विमुख नजर आता था जम्मू-कश्मीर

5th August Celebration In Jammu Kashmir पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती जो 370 की बहाली का अपना एजेंडा बता रही हैं भी इस बात को नहीं नकार सकती कि उनके पिता दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद ने लोकतंत्र को ताक पर रखकर पंचायतों को भंग किया था।श्रीनगर, नवीन नवाज: जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 से मुक्ति मिले दो साल बीते चुके हैं। इस दौरान राजनीतिक और संवैधानिक ही नहीं बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था में ,भी बदलाव और विकेंद्रीकरण देखने को मिला है। दो साल पहले जम्मू कश्मीर एक तरह से भारत का हिस्सा होते हुए भी मुख्यधारा से किसी हद तक विमुख नजर आता था। अलगाववादियों और मौकापरस्त सियासतदानों की चंगुल में फंसा नजर आता था। अब प्रदेश पूरी तरह आजाद और राष्ट्रीय मुख्यधारा में विलीन है। दो वर्षों में जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया जिस तेजी से हुई है, वह अपने आपमें अभूतपूर्व है।आज त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था बहाल हुई है, नगर निकाय पहले से ज्यादा प्रभावी, स्वतंत्र और क्रियाशील है। खुद पंचायत प्रतिनिधि ही नहीं जम्मू कश्मीर के दिग्गज सियासतदान मानते हैं। पंचायतों का सशक्तिकरण पंच-सरपंच के चुनाव से आगे नहीं बढ़ता था। इसका सुबूत यही है कि वर्ष 2001 में 30 साल बाद जम्मू कश्मीर मे पंचायत चुनाव हुए। 2002 में जब पीडीपी-कांग्रेस की सरकार बनी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सभी पंचायतों को भंग कर दिया।वर्ष 2005-06 के दौरान जम्मू कश्मीर में नगर निकाय चुनाव हुए। इसके बाद भी निकायों की हालत क्या रही होगी सभी जानते हैं। फिर 2011 के दौरान फिर पंचायत चुनाव हुए,लेकिन पंच-सरपंच बने और वह भी सीमित अध्किारों के साथ। पूर्ण पंचायत राज व्यवस्था कभी लागू नहीं हो पाई। आज जम्मू कश्मीर में संविधान के 73वां और 74वां संशोधन लागू हो चुका है। पंचायतों और नगर निकायों से संबंधित सभी प्रविधान लागू हैं। पंचायतों को सीधा पैसा मिल रहा है। लोग विकास प्राथमिकताएं खुद तय कर रहे हैं। हाल ही में हुए डीडीसी चुनाव ने वास्तव में जम्मू और कश्मीर में जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत किया है।लोकतंत्र की मजबूती में बड़ी बाधा था : आज जम्मू कश्मीर में पंचायत, ब्लाक विकास परिषद और जिला विकास परिषद (डीडीसी) क्रियाशील है तो उसका श्रेय 370 हटने को जाता है। यह जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र की मजबूती में बाधा था। जम्मू-कश्मीर को अलगाववाद, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और पारिवारिक शासन के अलावा कुछ नहीं दिया। तत्कालीन राज्य में मुख्यधारा के राजनीतिक अभिनेताओं ने अप्रभावी, भ्रष्ट और कुशासन को प्रोत्साहित किया। केंद्र की जनकल्याण की योजनाएं कुछेक लोगों के कल्याण का जरिया बनती थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की शुरुआत होती थी, लेकिन वह कब कागजों में सिमट जाती थी, पता नहीं चलता था। अब ऐसा नहीं हो रहा है। लोकतांत्रिक संस्थानों के मजबूत होने के साथ भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो काम कर रहा है। सभी केंद्रीय एजेंसियां नियमित निगरानी कर रही हैं। आज प्रशासनिक कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही भी बढ़ी है। लोगों के लिए निर्धारित धन के आवंटन में सकारात्मक बदलाव देखा जा रहा है। भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्रवाई का असर प्रशासनिक मशीनरी के कामकाज में भी नजर आता है।केंद्रीय कानून सीधे लागू नहीं होते थे…: पांच अगस्त 2019 से पूर्व जम्मू कश्मीर में कोई केंद्रीय कानून सीधे लागू नहीं हो पाता था। वह तभी लागू होता जब जम्मू कश्मीर की विधानसभा उस कानून को स्थानीय सत्ताधारियां और एक वर्ग विशेष के मुताबिक उसमें बदलाव करती। कई बार केंद्रीय कानून जम्मू कश्मीर में प्रभाव गंवा बैठते। खैर भारतीय संविधान के लगभग 106 जन-हितैषी कानून और 9 संवैधानिक संशोधन अब जम्मू और कश्मीर में लागू हो चुके हैं। शिक्षा का अधिकार, माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2001, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम और महिलाओं, बच्चों, दिव्यांगों के लाभ के लिए अधिनियम समेत कई प्रगतिशील कानून अब जम्मू कश्मीर मे लागू हैं।अब्दुल्ला व मुफ्ती परिवार ने किया कमजोर : आज नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला यह नहीं कह सकते कि जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र कमजोर हुआ है या आमजन से उसके लोकतांत्रिक अधिकार छीने हैं। पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती जो 370 की बहाली का अपना एजेंडा बता रही हैं, भी इस बात को नहीं नकार सकती कि उनके पिता दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद ने लोकतंत्र को ताक पर रखकर पंचायतों को भंग किया था। अगर लोकतंत्र को जम्मू कश्मीर में अगर किसी ने कमजोर बनाया है तो उसमें अब्दुल्ला व मुफ्ती के योगदान को कोई नहीं नकार सकता। नेकां सरकार गिराने में कई बार मुफ्ती सईद का हाथ रहा है और इसका दावा एक बार नहीं कई बार फारूक और उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला कर चुके हैं। खैर,यह इतिहास का विषय है। इतिहास की बात करते हुए 1951 याद कर लेना चाहिए जब शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस के खिलाफ चुनाव लडऩे वाले किसी प्रत्याशी का नामांकन सही नहीं पाया। उन्हें चुनाव लडऩे से अयोग्य करार दिया। गुज्जर-बक्करवाल समुदाय को कभी राजनीतिक आरक्षण का लाभ नहीं मिला।शेख अब्दुल्ला का सपना पूरा : यहां यह जरूर कहना चाहूंगा कि शेख मोहम्मद अब्दुल्ला जिन्होंने कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली के लिए लड़ा, जो जम्मू कश्मीर में प्रत्येक नागरिक को राजनीतिक व आॢथक रूप से मजबूत बनाने का ख्वाब देखते थे, उनका ख्वाब आज पूरा हुआ है। जम्मू कश्मीर में पहली बार जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थान मजबूत नजर आ रहे हैं। ब्लाक और जिला विकास परिषदें काम कर रही हैं।,