इस वैदिक पर्व का मूल प्रयोजन स्वस्थ एवं ग्रंथिमुक्त व्यक्तिगत जीवन, समता, एकता एवं भाईचारे से युक्त सामाजिक व्यवस्था व आनंद एवं उल्लास से भरे-पूरे जनजीवन का विकास करना है। सरदी के अंत और ग्रीष्म के आगमन की संधिवेला में मनाये जाने वाले इस पर्व में ऋतु चक्र की वैज्ञानिकता समाहित है।
हमारी सनातन संस्कृति में पर्वों-त्योहारों की अविरल श्रृंखला भारत की अखंड जिजीविषा, अदम्य उत्साह, शाश्वत जीवन दर्शन और विराट राष्ट्रीय चरित्र को उजागर करती है। इन पर्वों में सर्वाधिक अनोखा है होली का तत्वदर्शन। रंगों का यह पर्व हमारे सनातन जीवन मूल्यों को जितनी सम्पूर्णता के साथ पेश करता है। शायद ही कोई अन्य पर्व करता हो। आमतौर पर आने वाले का अभिनंदन होता है और जाने वाले का शोक मनाया जाता है। लेकिन होली की खूबी यह है कि यह आने वाले के साथ रंग-गुलाल की मस्ती के साथ नाच-गाकर जाने वाले को भी खुशी-खुशी विदा करता है। वैदिक मनीषा कहती है, प्रकृति पल पल बदलती रहती है क्यूंकि परिवर्तन सृष्टि का अकाट्य नियम है। जैसे आज के बालक का कल वृद्ध होना तय होता है, वैसे ही जन्म के समय ही मृत्यु भी सुनिश्चित हो जाती है। फिर भी परमात्मा के इस माया रचित विश्व में हम साधारण जन सामान्य जन्म पर उल्लास मनाते हैं तो मृत्यु पर शोक। लेकिन होली सिखाती है कि हमें आने वाले का ही नहीं, जाने वाले का भी अभिनंदन करना चाहिए। यदि पतझड़ में पत्ते झड़ेंगे नहीं, तो उस वृक्ष पर नए पत्ते आएंगे कहां से? यही है होली का तत्वदर्शन। पुराने साल की विदाई और नए साल के आने का उत्सव है होली।
इस वैदिक पर्व का मूल प्रयोजन स्वस्थ एवं ग्रंथिमुक्त व्यक्तिगत जीवन, समता, एकता एवं भाईचारे से युक्त सामाजिक व्यवस्था व आनंद एवं उल्लास से भरे-पूरे जनजीवन का विकास करना है। सरदी के अंत और ग्रीष्म के आगमन की संधिवेला में मनाये जाने वाले इस पर्व में ऋतु चक्र की वैज्ञानिकता समाहित है। कृषि, पर्यावरण, मानव स्वास्थ्य और सामाजिक समरसता का द्योतक यह पर्व फाल्गुन की उन्मुक्त उदारता के मध्य जीवन की नकारात्मकता व नीरसता को दूर कर सर्वत्र मधुरता और स्नेह का संचार करता है। हमारी कृषि प्रधान संस्कृति का फसल पकने का उल्लास भी इनमें समाहित है। होलिका के सामूहिक यज्ञ में नये अन्न (होला) का यज्ञ करने के बाद ही इसके उपयोग का विधान हमारे ऋषियों ने बनाया था। जरा विचार कीजिए! कितना प्रेरक व पावन दर्शन है इस वैदिक पर्व का।
इस ऋतु पर्व पर प्रकृति और मानवीय मनोभावों के उल्लास का सुंदरतम रूप अभिव्यक्त होता है। यह एक ऐसा जनउत्सव है जिसमें स्त्री-पुरुष ऊंच-नीच, जात-पात के भेद भूलकर समाज का हर व्यक्ति पूरे उत्साह से शामिल होता है। इस ऋतु पर्व पर मनुष्य व प्रकृति दोनों का आंतरिक आहलाद पूरे चरम पर होता है। चहुंओर निखरे मनमोहक फूलों से सजी धरती माता, आम के बौर, कोयल की पंचम कूक व पपीहे की पीव-पीव के साथ प्रकृति जब अपने बहुरंगी सौंदर्य की छटा विविध रूपों में बिखेरती है, तब होली का रंगपर्व अपनी निराली छटा के साथ समूचे भारतीय जनजीवन को अपने रंग में सराबोर कर डालता है। यहां ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि जहां एक ओर फसलों की कटाई का यह मौसम कृषकों को उनके श्रम का उपहार सौंपता है। वहीं दूसरी ओर ऋतु चक्र में आये बदलाव के कारण यह मौसम कीट-पतंगों के कारण उत्पन्न परेशानियों-बीमारियों का वाहक भी होता है। इस ऋतु परिवर्तन के दौरान चेचक व खसरा के संक्रमण की आशंका रहती है। हमारे वैज्ञानिक मनीषियों ने यह बात सदियों पहले ही जान ली थी, इसीलिए उन्होंने होलिका दहन की सामग्री में टेसू, केसर व मजीठ जैसे औषधीय फूलों के उपयोग किये जाने के साथ अलगे दिन इन्हीं फूलों से निर्मित कुदरती रंगों से जल क्रीड़ा की परम्परा डाल दी थी ताकि वायु में मौजूद रोग के कीटाणु नष्ट हो जाएं। इस बात के उल्लेख ‘भविष्य पुराण’ तथा ‘हर्ष चरित’ आदि ग्रंथों में मिलते हैं।
बड़े-बूढों की मानें तो चार-पांच दशक पूर्व तक होली ऐसे ही कुदरती रंगों से खेली जाती थी। उस दौर में प्रकृति के गर्भ से प्रकट होने वाला यह पर्व हमारे चहुंओर आनंद का ऐसा वातावरण सृजित करता था जिसमें मनों में दबी सारी शंकाएं व कुंठाएं निर्बीज हो जाती थीं और सभी एक स्वर से बोल उठते थे अब हो -ली अर्थात पुराना सब पीछे छोड़कर आगे का जीवन खुशियों से बिताना है। तब होली का यह उत्सव व्यक्तिगत नहीं अपितु समूहमन का निर्माण करता था। एक उन्नत व स्वस्थ समाज की रचना के लिए होलिका रूपी अग्नि विध्वंसकारी शक्तियों, कुरीतियों, मूढ़ मान्यताओं, व्यसनों, कुविचारों, दुर्भावों व द्वेष-पाखण्डों को भस्मीभूत कर देती थी। पुराने लोगों की मानें तो चार-पांच दशक पहले बसंतपंचमी को होलिका रखने के बाद से ही होली की तैयारियां होने लगती थीं। शिवरात्रि से होली गीतों की शुरुआत हो जाती थी और गांव के गांव इन फागुनी गीतों की मस्ती में डूब जाते थे जो होली के बाद तक चलते थे; लेकिन अब सिर्फ क्षेत्र के ठेठ ग्रामीण इलाकों में होली के दिन शाम में होली के पास जाकर फाग गाने की परंपरा निभायी जाती है। पहले बसंत पंचमी के बाद गांव-गांव युवाओं द्वारा नगाड़े की थाप पर फाग गीत गाये जाते थे और युवाओं की टोली को नगाड़ा बजाने के लिए साल भर होली का इंतजार रहता था पर अब कानों में ढोल, ताशा, मजीरा और डफली की वह गूंज अब बहुत कम सुनने को मिलती है। यही नहीं पहले होली पर घर-घर चिप्स-पापड़ बनते थे। घर-घर से गुझिया की सुगंध आती थी। बाहर की मिठाइयां व व्यंजन शायद ही किसी घर में आती हों। होली गीतों व फाग और धमार की रौनक माहौल में एक अलग ही मस्ती घोल देती थी।
फाग गाने वाले लोक कलाकार रामबिलास दुखी मन से कहते हैं कि खेद का विषय है कि होली की रौनक के लिए विख्यात ग्राम्य अंचलों में अब होली की गायकी परंपराओं से हट कर नई धुनों, डीजे व फिल्मी गीतों तक सिमटती जा रही है। ब्रजमंडल, सुदूर पर्वतीय अंचलों, ठेठ ग्रामीण व वनवासी क्षेत्रों की बात छोड़ दें तो अपनी उत्सवधर्मिता के लिए देश दुनिया में विख्यात इस लोकपर्व की भारतीयता से जुड़ी लोक परंपराएं अब इतिहास बनती जा रही हैं। उनका कहना है कि इस पर्व पर फूहड़ व द्विअर्थी गीत संगीत का बोलबाला हमारी उच्च जीवन मूल्यों वाली भारतीय संस्कृति की विरुद्ध है। हमें इनके खिलाफ अलख जगानी होगी और इस पर्व के लोकतत्व को सहेजना होगा। तभी इस पर्व का मूल सौंदर्य हमारे राष्ट्र जीवन में निखर सकेगा।
बाजारीकरण के वर्तमान दौर में कुदरत के वे रंग न जाने कहां खो गये हैं और प्राकृतिक रंगों की जगह अब रासायसिक रंगों व सिंथेटिक डाइयों ने ले ली है। कहने की जरूरत नहीं कि देखने में सुन्दर लगने वाले ये रंग कितने हानिकारक हैं। जानकारों की मानें तो इनमें माइका, अम्ल, क्षार, कांच के टुकड़े तक पाये जाते हैं जो न केवल त्वचा व नेत्र रोग के कारण बनते हैं बल्कि कैंसर व सांस जैसे रोगों के खतरे को भी बढ़ाते हैं। दूसरे नशे में धुत मनचले होली की आड़ में अपनी क्षुद्र वासनाओं की कुत्सित अभिव्यक्त का प्रयास करते हैं। हुड़दंगियों की टोली इसमें अपनी शान समझती है। कई बार न चाहकर भी लोग इनकी चपेट में आ जाते हैं और हंसी-खुशी का पर्व का हिंसा एवं ध्वंस का वाहक बन जाता है। स्वस्थ मनोरंजन की जगह अश्लीलतापूर्ण हंसी-मजाक व अवांछीनय दुष्कृत्य इसके स्वरूप को बदरंग कर देते हैं। यही नहीं, रंग खेलने के नाम पर पानी की बेइंतहा बर्बादी और होली पार्टियों के नाम पर भोजन की बर्बादी कर क्या हम इस प्रकृति पर्व और पर्यावरण संरक्षण की पोषक भारतीय संस्कृति के उन्नत जीवन मूल्यों का अपमान नहीं कर रहे? इस दिशा में गंभीरता से सोचिये।
निर्मल हास-परिहास व हंसी ठिठोली के इस महापर्व पर बढ़ती यह अपसंस्कृति इस पावन पर्व का अपमान है। हम इक्कीसवीं सदी के तकनीकी युग में जी रहे हैं। आज हमने अपनी सुख सुविधाओं में तो विस्तार कर लिया है मगर हमारे जीवन की परिधि निरंतर सिकुड़ती जा रही है और आनंद एकांगी होता जा रहा है। हमें यह भूल सुधारनी होगी। समझना होगा कि होली हमारी राष्ट्रभक्ति है। पर्यावरण की सुरक्षा का भाव है। मातृभूमि के प्रति प्रेम है। समाज के बनते-बिगड़ते रिश्तों को सुलझाने का मूलमंत्र है। होली में पनपी विकृतियों को दूर करने के लिए भावनाशील व साहसी लोगों को आगे आना होगा और होलिका दहन के समय हर देशवासी को अपने अंदर मौजूद कुत्सित भावनाओं व गन्दे विचारों की होली जलाने के हाथ राष्ट्रहित में संकल्पित होना होगा, तभी हम अपनी भावी पीढ़ी को इस पर्व की सुंदर व स्वस्थ विरासत सौंप सकेंगे।