प्रशांत बख्शी
तबस्सुम (बदला हुआ नाम) मुंबई की एक डॉक्टर हैं. अपनी मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने कई अस्पतालों और क्लीनिकों में नौकरी के लिए आवेदन किया.
मेडिकल की पढ़ाई उन्होंने बहुत अच्छे अंकों के साथ पूरी की थी. इसलिए उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें जल्द ही नौकरी मिल जाएगी. उन्होंने 10 या 12 संस्थानों में आवेदन किया, लेकिन उन्हें कहीं से भी कोई सकारात्मक जवाब नहीं आया.
तबस्सुम कहती हैं, “मैंने सोचा कि शायद दूसरे उम्मीदवार मुझसे ज़्यादा क़ाबिल होंगे. उन्हें मुझसे ज़्यादा अनुभव होगा, शायद इसलिए उन्होंने मुझे नहीं लिया. कुछ दिनों बाद मैंने एक निजी क्लिनिक में आवेदन किया. उस क्लिनिक को मेरे कॉलेज के ही एक पूर्व प्रोफ़ेसर चला रहे थे. वो मुसलमान थे. उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि तुम अपने सिर पर हिजाब पहनती हो, इससे कुछ मरीज़ों को आपत्ति हो सकती है. इसलिए तुम ये उम्मीद मत रखो कि तुम्हें यहां नौकरी मिल जाएगी.”
वो आगे कहती हैं, ”मुझे उस समय एहसास हुआ कि मुझे नौकरी के लिए कॉल क्यों नहीं आती थी. जहां-जहां मैंने ख़ुद जाकर आवेदन किया था, वहां से मुझे कोई बुलावा नहीं आया. और जहां मैंने ऑनलाइन आवेदन भेजा था या जहां उन्होंने मुझे नहीं देखा था, वहां से कॉल तो आए, पर इंटरव्यू के बाद मुझे नहीं लिया गया.”लखनऊ की नायला (बदला हुआ नाम) को तो एक स्कूल के रिसेप्शन पर ही बता दिया गया था कि अगर उन्हें यहां काम करना है तो हेड स्कार्फ़ उतारना होगा.नायला बताती हैं, “मैंने उनसे कहा कि अगर यह आपकी पॉलिसी है, तो नौकरी के आवेदन की शर्तों में इसका उल्लेख किया जाना चाहिए था. कुछ दिनों बाद, स्कूल से कॉल आया कि आप परीक्षा के लिए कॉल लेटर ले जाएं. लेकिन मैं वहां दोबारा नहीं गई, क्योंकि मुझे पता था कि वे मुझे नौकरी नहीं देंगे.”
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हिजाब के चलते नौकरी मिलने में भेदभाव के आरोप
रोज़गार के मामले में, मुस्लिम लड़कियां, ख़ासतौर से वो लड़कियां जो हिजाब पहनती हैं, अक्सर नौकरी मिलने में भेदभाव होने का ज़िक्र करती हैं. मुस्लिम महिलाएं शिक्षा के मामले में अन्य समुदायों से काफ़ी पीछे हैं. नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है.
हाल ही में, एक ग़ैर-सरकारी संगठन ‘लीड बाई’ ने एक रिपोर्ट पेश की है, जिसमें कहा गया कि मुस्लिम लड़कियों के साथ नौकरियों में 47 प्रतिशत तक भेदभाव किया जाता है, यानी जितनी भी मुस्लिम लड़कियां नौकरी के लिए आवेदन करती हैं, उनमें से लगभग आधी लड़कियों को मुस्लिम होने के चलते नौकरी नहीं मिलती है.
‘लीड बाई’ की निदेशक डॉक्टर रोहा शादाब ने बीबीसी को बताया, “भारत में वर्कफ़ोर्स में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व और संभावित भेदभाव पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है. मनमोहन सिंह के शासनकाल में केवल सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर बात की गई थी. रोज़गार में मुस्लिम महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों का अध्ययन करने का यह हमारा पहला प्रयास है. इस अध्ययन से यह पता चलता है कि हिन्दू लड़कियों की तुलना में 47.1 प्रतिशत मुस्लिम लड़कियों को जॉब की कॉल नहीं आई.”
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डॉक्टर रोहा ने कहा, “इस अध्ययन के लिए एक नया तरीका अपनाया गया है. फ्रेशर की जॉब के आवेदन के लिए एक रिज़्यूमे तैयार किया गया. यही रिज़्यूमे हबीबा अली और प्रियंका शर्मा के नाम से नौकरी के लिए भेजा गया था. 10 महीने की अवधि में, जॉब सर्च की कई वेबसाइटों पर उपलब्ध विभिन्न नौकरियों के लिए हबीबा और प्रियंका शर्मा के नाम से अलग-अलग एक-एक हज़ार आवेदन दिए गए. इन आवेदनों में लड़कियों की तस्वीरें नहीं लगाई गई थीं. इस तरीक़े से भेदभाव की दर स्पष्ट तौर पर सामने आ गई.”
“डॉक्टर रोहा ने बताया कि भेदभाव की दर 47 प्रतिशत से अधिक थी. हिंदू महिला आवेदक को 208 जगहों से सकारात्मक जवाब मिला, जबकि इसकी तुलना में मुस्लिम महिला को केवल 103 कॉल मिलीं. इतना ही नहीं नौकरी देने वाली कंपनियां हिंदू महिलाओं के प्रति ज़्यादा ईमानदार थीं. 41 फ़ीसदी से ज़्यादा कंपनियों ने प्रियंका से फ़ोन पर संपर्क किया. जबकि हबीबा से सिर्फ 12.5 फ़ीसदी रिक्रूटर्स ने फ़ोन पर संपर्क किया.”
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इस अध्ययन में एक और बात सामने आई कि उत्तर भारत में मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव की दर कम थी जहां यह दर 40 प्रतिशत थी. जबकि पश्चिम भारत में यह 59 प्रतिशत और दक्षिण में 60 प्रतिशत थी.
डॉक्टर रोहा का कहना है कि यह अध्ययन वर्क फ़ोर्स में मुस्लिम महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों की पहली समीक्षा है. “लेकिन यह पूरी समीक्षा नहीं है. हम नहीं जानते कि अगर रिज्यूमे में मुस्लिम लड़की हबीबा की हिजाब वाली तस्वीर लगाई जाती तो इसका क्या रिज़ल्ट होता. हमने शर्मा सरनेम के ज़रिये प्रियंका की पहचान एक ब्राह्मण लड़की के रूप में ज़ाहिर की थी. अगर इसकी जगह किसी दलित लड़की का नाम होता तो शायद रिज़ल्ट कुछ और होता. लेकिन इस अध्ययन से यह तो स्पष्ट है कि मुस्लिम महिलाओं के साथ रोज़गार में बड़े पैमाने पर भेदभाव हो रहा है है.”
‘लीड बाई’ फाउंडेशन मुस्लिम महिलाओं को व्यापार, वाणिज्य और कॉर्पोरेट क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए ट्रेनिंग देता है. फाउंडेशन की “बायस इन हायरिंग” शीर्षक वाली इस रिपोर्ट पर सोशल मीडिया पर भी कई लोगों ने टिप्पणी की है.
अमित वर्मा नाम के एक यूज़र ने ट्विटर पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए लिखा कि “इससे पता चलता है कि न केवल हमारी राजनीति बल्कि हमारा समाज भी मुस्लिम विरोधी है. राजनीति तो वही कर रही है समाज जिसकी मांग कर रहा है.
एक अन्य यूज़र नीलांजन सरकार ने लिखा है कि “ये अध्ययन वर्क प्लेस में मुस्लिम विरोधी रवैये को बहुत ही उचित तरीक़े से सामने लाया है. इसी तरह के व्यावहारिक अध्ययन से उन लोगों को जवाब दिया जा सकता है जो भेदभाव के मुद्दे पर सवाल उठाते हैं.”
अलीशान जाफ़री ने लिखा है, “आपको और ज़्यादा मेहनत करनी चाहिए. हर नागरिक के पास समान अवसर हैं.”आमना ने लिखा है, “यह आंखें खोलने वाला सर्वे है. मुस्लिम महिलाओं को हर उद्योग और स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है. ”
इस रिपोर्ट में सिफ़ारिश की गई है कि भेदभाव के कारण देश की अर्थव्यवस्था सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित दिमागों से वंचित हो रही है. विभिन्न संगठन, शोध संस्थान और व्यक्तिगत तौर पर लोग एक अनुकूल वातावरण बनाकर रोज़गार में मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने में मदद कर सकते हैं.