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2024 आने वाला है! नफरत फैलाकर समाज को बांटने का षडयंत्र ; हिन्दू और भारत विरोधी जमीयत के इतिहास पर एक नज़र

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फरवरी 12 को दिल्ली के रामलीला मैदान में ही पुरुषोत्तम श्री राम, कृष्ण और देवों के देव महादेव को नकार ॐ को अल्लाह बताने वाले अरशद मदनी टीवी पर चर्चाओं का दौर चल रहा है, लेकिन इन चर्चाओं में फरवरी 13 एक इस्लाम विद्वान ने मदनी के बचाव में खड़े सारे मौलानाओं को मदनी द्वारा इस्लाम की नई परिभाषा लिखने पर ऑंखें खोलने को कहा। उस विद्वान ने मदनी का बचाव कर रहे मौलानाओं से प्रश्न किया कि ‘अगर ॐ ही अल्लाह है, फिर नमाज और अज़ान में ॐ क्यों नहीं बोला जाता? है किसी के पास जवाब? मदनी ने कौन-सा इस्लाम पढ़ा है?’ आदि आदि। दूसरे, मदनी द्वारा लिखे हुए भाषण को पढ़ने ने ही जिस संदेह को जन्म दिया था, उसका भी निवारण इन चर्चाओं में उस समय हो गया, जब पैनल में मौजूद एक मेहमान ने इस ठोंगी सदभावना अधिवेशन में उपस्थित मोदी विरोधियों नेताओं को दिखा दिया। जो इस बात को साबित कर रहा है कि 2024 चुनाव में मुस्लिम वोट हथियाने के लिए किये गए  षड्यंत्र का भांडा ही फूट गया।
भारत को बांटने और कमजोर करने की साजिशें रचने वाले अंतर्राष्ट्रीय गिरोह अभी थमने वाले नहीं हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव तक उनके षडयंत्र सामने आते रहेंगे और भारत में मौजूद देशविरोधी ताकतें अपने निजी लाभ के लिए और समाज को बांटने के लिए उसे उछालते रहेंगे। बीबीसी डॉक्यूमेंट्री, हिंडनबर्ग रिपोर्ट, रामचरितमानस के प्रति नफरत और अब सनातन धर्म को इस्लाम से जोड़ने की साजिश और सनातन के प्रति जहरीले बयान। दारुल उलूम देवबंद के प्रमुख और जमीयत के धर्मगुरु मौलाना अरशद मदनी ने नफरती बयान दिया है। मदनी ने कहा कि ओम और अल्लाह एक ही हैं। उसने कहा- जब धरती पर कोई नहीं था, तब मनु किसे पूजते थे? इतना ही नहीं, उन्होंने आदम को ही हिंदू और मुसलमान का पूर्वज बता दिया। यह भारत को कमजोर करने का और बांटने का नया षडयंत्र है।दिल्ली के रामलीला मैदान में रविवार को जमीयत उलेमा-ए-हिंद का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में सभी धर्मों के गुरु और संत महात्मा इकट्ठा हुए। इसी दौरान उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना सैयद अरशद मदनी ने विवादित बयान दिया। सवाल उठ रहा है कि जिस मंच से एक दिन पहले ही मजबही दुश्मनी भुलाकर गले लगने की अपील की गई थी, उसी मंच से इस तरह के विवादास्पद बयान क्यों दिया गया। इससे सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह किसी आका के निर्देश पर दिया गया बयान है।

लोकेश मुनि ने दिया करारा जवाब, कहा- मदनी ने कार्यक्रम का लगा दिया पलीता

भरे मंच से लोकेश मुनि ने कहा, “जैन धर्म के 24वें तीर्थंतर भगवान महावीर हुए। उससे पहले भगवान पारस 23वें रहे। पहले भगवान ऋषभ थे। नके पुत्र भरत थे। जिनके आधार पर ही इस देश का नाम भारत पड़ा है। आप इसे मिटा नहीं सकते हैं। आपने जो बात कही है। मैं सहमत नहीं हूं। मेरे सारे सर्वधर्म के लोग कोई इससे सहमत नहीं हैं। हम केवल सहमत हैं। आपस में मिल जुलकर रहें, प्यार से रहें… इसके अलावा ये जो कहानी अल्लाह.. मनु और उसकी औलाद ये सब फालतू की बाते हैं। सारा पलीता लगा दिया।” एकता के सद्भावना के सम्मेलन में यह कहकर वो मंच छोड़कर चले गए।

लोकेश मुनि ने मदनी को शास्त्रार्थ की चुनौती देते हुए कहा- अल्लाह, मनु ये वो.. उससे चार गुना कहानी मैं सुना सकता हूं। मदनी साहब आप मेरे पितातुल्य है। मैं आपको चुनौती देता हूं। आप दिल्ली आईये.. या आप मुझे सहारनपुर बुला लीजिए। मैं सहारनपुर आऊंगा।” इसके बाद लोकेश मुनि ने कहा कि हमने सभी ने प्रेम और सद्भाव की बातें की लेकिन मदनी साहब का जो वक्तव्य आया वह बिल्कुल अलग रहा। उन्होंने अपनी ही कोई कहानी कह दी। हम सभी सर्वसम्मति से मदनी जी की बातों का विरोध करते हैं।

ॐ और अल्लाह एक 
दिल्ली में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के दो दिन के अधिवेशन में रविवार को दारुल उलूम देवबंद के प्रमुख और जमीयत के धर्मगुरु मौलाना अरशद मदनी के बयान से विवाद खड़ा हो गया है। मदनी ने कहा- ओम और अल्लाह एक ही हैं। जो लोग घर वापसी के बात करते हैं, उनको पता होना चाहिए कि हम तो अपने घर में ही बैठे हैं। जो सबसे पहला इंसान था वो किसकी इबादत करता था। मदनी ने कहा, “मैंने धर्म गुरु से पूछा जब कोई नहीं था, न श्री राम, न ब्रह्म, तब मनु किसे पूजते थे? कुछ लोग बताते हैं कि वे ओम को पूजते थे तब मैंने कहा कि इन्हें ही तो हम अल्लाह, आप ईश्वर, फारसी बोलने वाले खुदा और अंग्रेजी बोलने वाले गॉड कहते हैं।”
बड़ी चालाकी से हिंदू और मुसलमानों के पूर्वजों को एक बता दिया

मदनी ने कहा- उस वक्त और कोई नहीं था- वो सिर्फ अल्लाह को मानते थे। हमें (मुसलमान) जो बोलते हैं कि अपने पूर्वज की तरफ चले जाओ। इस दुनिया में सबसे पुराना आदमी जन्नत से उतरा, वो हमारे पूर्वज हैं और वो हिंदुस्तान की सरजमीन पर ही उतरे थे। अरशद ने कहा- हमने जमीयत उलेमा ए हिंद में अपनी अपनी बात रखी है कि मुसलमान लड़कियों के लिए अलग स्कूल होना चाहिए, जिसमें उनको इस्लाम की भी पढ़ाई करवाई जाए, ताकि उनको पता हो कि वो मुसलमान हैं।

मदनी ने कहा- अल्लाह ने आदम को आसमान से भारत की धरती पर उतारा
अरशद मदनी ने कहा- ”अल्लाह ने सबसे आखिरी नबी को अरब की सरजमी में उतारा. बिल्कुल उसी तरह हजरत आदम को.. जो नबी थे, उनको भारत की धरती के अंदर उतारा। अगर वो चाहते तो आदम को अफ्रीका, अरब, रूस के अंदर उतार देते। वो भी जानते हैं। हम भी जानते हैं कि आदम को उतारने के लिए भारत की धरती को चुना। आदम सबसे पहले आदमी हैं जिन्हें अल्लाह ने आसमान से उतारा।
कौन हैं जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष अरशद मदनी
मौलाना अरशद मदनी, जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष हैं। 8 फरवरी 2006 को अरशद मदनी को उनके बड़े भाई मौलाना असद मदनी के बाद जमीयत उलेमा-ए-हिन्द का अध्यक्ष चुना गया था। 2012 में वह मुस्लिम वर्ल्ड लीग, मक्का, केएसए के सदस्य चुने गए। इसके साथ ही मदनी सहारनपुर में दारुल-उलूम देवबंद में हदीस के प्रोफेसर हैं और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य हैं।
जमीयत-ए-उलमा-ए-हिन्द भारत का सबसे धनी इस्लामिक संगठन

जमीयत-ए-उलमा-ए-हिन्द भारत के सबसे धनी इस्लामिक संगठन के रूप में काम करता है जिसे हलाल सर्टिफिकेट, मस्जिदों में इमामों की तैनाती तथा चंदे के रूप में भारी भरकम धन मिलता है। दिल्ली के आईटीओ चौराहे पर इनका विशाल कार्यालय है। देशभर की अधिकांश सुन्नी मस्जिदों में इन्हीं के द्वारा इमाम नियुक्त किये जाते हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिन्द 1919 के खिलाफत मूवमेन्ट से पैदा हुआ इस्लामिक संगठन है। इसका बुनियादी काम मुसलमानों को सच्चा इस्लाम पहुंचाकर उनको ताकतवर बनाना है।

जिस चालाकी से मदनी ने हिंदू और मुसलमानों के पूर्वजों को एक बताया है वह कोई नई बात नहीं है। इस पर एक एजेंडे के तहत दशकों से काम किया जा रहा है-
मदनी ने गढ़ी इस्लाम की नयी परिभाषा
मौलाना अरशद मदनी ने जो बोला है वह इस्लाम की नयी परिभाषा करने जैसा है। मदनी ने प्रमुख रूप से तीन बाते कहीं हैं। पहला, इस्लाम भारत का सबसे प्राचीन मजहब है, दूसरा, मुसलमान कहीं बाहर से नहीं आये बल्कि यहीं के हैं, और तीसरा कि इस्लाम को बाहर का मजहब कहना बंद होना चाहिए। ये तीनों ही बातें इस्लाम की नयी परिभाषा करने जैसी हैं जिसे सुनकर हो सकता है कि कुछ लोगों को हंसी भी आये लेकिन जो इस्लाम को समझते हैं वो मदनी की बातों की गंभीरता को भी जरूर समझेंगे।
इस्लाम की शुरुआत को लेकर प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं
वनइंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, इस्लाम की शुरुआत को लेकर ऐतिहासिक रूप से कोई तथ्य उपलब्ध नहीं है। जो कुछ है वह इस्लामिक सोर्स से ही समझा जा सकता है। इस्लाम का सबसे पहला सोर्स है इब्ने हिशाम द्वारा आठवीं सदी में लिखी गयी ‘सीरत उल नबवी।’ ऐसा समझा जाता है कि इब्न ए हिशाम ने सीरत उल नबवी लिखने के लिए इब्न ए इशाक की अल सीरत अल नबवी का सहारा लिया था। इब्न ए इशाक सातवीं सदी के बताये जाते हैं। फिर भी इब्न इशाक की बजाय इब्न ए हिशाम को ही इस्लाम का प्रामाणिक इतिहासकार माना जाता है। उसी के समकालीन तबरी और इब्न ए कतीर भी इस्लाम के इतिहासकार के रूप में माने जाते हैं।
सातवीं सदी में अरब में पैगंबर आये जिन्होंने नया दीन शुरु किया
इब्न ए इशाक, तबरी और कतीर ने आठवीं सदी में जो लिखा वही इस्लाम की बुनियाद बन गया। इसी के आधार पर हदीसें लिखी गयीं। यह सब अब्बासियों के शासनकाल के दौरान किया गया या कराया गया। इस्लाम के इन प्रामाणित स्रोतों में जो कहा गया है उसके मुताबिक सातवीं सदी में अरब में एक पैगंबर आये जिन्होंने एक नया दीन शुरु किया। उनके ऊपर आसमान से बही उतरती थी जो मुसलमानों के लिए कुरान के रूप में आज मौजूद है।
चालाकी से इस्लाम को यहूदियों के अब्राहम से जोड़ दिया
ये सब बातें कितनी सच हैं और कितनी झूठ इसको प्रमाणित करने का कोई जरिया मानव जाति के सामने नहीं हैं। मुसलमान इसी को सच मानते हैं और इसी के मुताबिक जीवन जीते हैं। लेकिन अब्बासियों के समय तारीख, तफ्सीर और हदीसों (इतिहास, विवरण, और प्रमाण) के जरिए जो इस्लाम गढ़ा गया उसमें बहुत चालाकी से उसे यहूदियों के अब्राहम (इब्राहिम) से जोड़ दिया गया। अपने इस नये सेक्ट को प्रामाणिक बनाने के लिए अब्बासियों ने इसे मोजेज (मूसा) और जीसस (ईसा) की निरंतरता वाला मजहब बता दिया। जबकि इस नये मजहब का न तो अब्राहम से दूर दूर तक कोई लेना देना था और न ही मोजेज या जीसस से।
इस्लाम के पास कोई दार्शनिक आधार नहीं
मुसलमानों द्वारा इस्लाम को यहूदियों या ईसाइयों जैसा प्राचीन मजहब साबित करने के लिए यह चाल खेली गयी और कामयाब रही। इस्लाम को जो लोग प्रसारित कर रहे थे, उनके सामने सबसे बड़ा संकट ये था कि इस्लाम के पास कोई दार्शनिक आधार नहीं था। उनके पास अपनी कोई फिलॉसफी नहीं थी इसलिए जहां से जो सुना उसे इस्लाम में मिला लिया। बाइबिल और तोरा के किस्से, गिंजा रब्बा की कहानियां सब कुरान और इस्लाम का हिस्सा बना ली गयीं। और कहा गया कि ये कुरान उनके अपने अल्लाह का कलाम है। यहूदी इतनी बड़ी संख्या में थे नहीं कि वो इसका विरोध कर पाते और कहते कि उनके अब्राहम या मोजेज को मोमिन अपना क्यों बता रहे हैं। गिंजा रब्बा के मानने वाले भी इतने कम थे कि उनके विरोध करने का कोई सवाल ही नहीं था। लेकिन जो लोग इस्लाम को एक दीन के रूप में गढ रहे थे उन्होंने इधर उधर से जुटाई गयी जानकारियों, स्थानीय परंपराओं और कहानियों को इस्लाम बनाकर उसे मुकम्मल घोषित कर दिया।
भारत में भी यह चाल चली गई जब कृष्ण को पैगंबर बताया गया
भारत में भी यह चाल तब दिखी जब आर्य समाज को चुनौती देने तथा हिन्दुओं को मूर्ख बनाने के लिए मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ने कहना शुरु किया कि भारत में पैदा होने वाले कृष्ण भी एक पैगंबर थे और वह खुद इस्लाम का एक पैगंबर है। हिन्दुओं को तो समझ ही नहीं आया कि कादियानी क्या कह रहा है लेकिन मुसलमानों ने उसको गैर मुस्लिम घोषित कर दिया। मुसलमान अपने पैगंबर मोहम्मद को पहला और आखिरी पैगंबर मानते हैं। उन्हीं ने इस्लाम को शुरु किया और उन्हीं के दौर में इस्लाम मुकम्मल हो गया। इसके बाद अब इस्लाम में कोई पैगंबर नहीं आयेगा।
कादियानी ने इस्लाम को सनातन धर्म बताया था
कादियानी की कई झूठी कहानियां इस्लाम में फैल गयी। यह गुलाम अहमद कादियानी ही था जिसने इस्लाम को सनातन धर्म बताया था और इसी को प्रमाणित करने के लिए राम और कृष्ण को भी भारत में पैदा हुए पैगंबर बताया था। उसने यह काम इस्लाम को सनातन धर्म जितना पुराना दिखाने के लिए किया। कादियानी की उस थ्योरी को सही मानने लगे हैं कि इस्लाम असल सनातन धर्म है लेकिन मोहम्मद उसके आखिरी पैगंबर हैं।
इस्लाम को असली सनातन धर्म बताना षड्यंत्र का हिस्सा
मदनी अगर इस्लाम को असली सनातन धर्म बता रहे हैं तो वह बहुत योजनापूर्ण षड्यंत्र रच रहे हैं। ऐसी ही चाल मुस्लिमों ने यहूदियों के खिलाफ चली थी और अपने आप को अब्राहमिक रिलीजन का हिस्सा घोषित कर दिया था। अब वही चाल भारत के सबसे कट्टर इस्लामिक संगठन की ओर से सनातन धर्म के बारे में चली जा रही है ताकि वो भारत के जन और जमीन पर दावा कर सकें। हो सकता है कुछ मूर्ख इस बयान को भाईचारा वाला बयान भी मान लें लेकिन इस्लाम की ताकत तो हमेशा से ही ऐसे सीधे सादे मूर्ख ही रहे हैं जिन्हें खाते पचाते हुए वह दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी बन गया है।
जमीयत-ए-उलमा-ए-हिन्द की भारत में उत्पत्ति खिलाफत मूवमेन्ट से हुई। यह क्या है, क्यों शुरू हुआ, भारत से इसका क्या संबंध है, इस पर एक नजर-
खिलाफत मूवमेन्ट क्यों शुरू हुआ, भारत से इसका क्या संबंध?
1919-1922 भारत में मुसलमानों द्वारा राजनीतिक-धार्मिक आन्दोलन शुरू किया गया था। इस आंदोलन का नाम था ‘ख़िलाफ़त आन्दोलन’। इस आन्दोलन का उद्देश्य (सुन्नी) इस्लाम के मुखिया माने जाने वाले तुर्की के ख़लीफ़ा के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये अंग्रेज़ों पर दबाव बनाना था। यानी खिलाफत मूवमेन्ट का भारत से कोई संबंध नहीं था।
विरोध नहीं, विचारधारा को खिलाफ़त कहते हैं
मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद इस्लाम के प्रमुख को खलीफ़ा कहते थे। इस विचारधारा को खिलाफ़त कहा जाता है। प्रथम चार खलीफाओं को राशिदुन कहते हैं। उम्मयद, अब्बासी और फ़ातिमी खलीफा क्रमशः दमिश्क, बग़दाद और काहिरा से शासन करते थे। इसके बाद उस्मानी (ऑटोमन तुर्क) खिलाफ़त आया। मुहम्मद साहब के नेतृत्व में अरब बहुत शक्तिशाली हो गए थे। उन्होंने एक बड़े साम्राज्य पर अधिकार कर लिया था जो इससे पहले अरबी इतिहास में शायद ही किसी ने किया हो। खलीफ़ा बनने का अर्थ था – इतने बड़े साम्राज्य का मालिक और खिलाफ़त यानी इस विशाल साम्राज्य की विचारधारा।
खलीफा का काम था इस्लाम का निज़ाम कायम करना
खलीफा का काम होता है युद्ध कर के पूरे विश्व पर इस्लाम का निज़ाम कायम करना। जो कि कश्मीर में बुरहान वानी करना चाहता था। यानी इस्लाम की ऐसी हुकूमत कायम करना जिसमें इस्लामिक यानी शरीया कानून चले और जिसमे इस्लाम के अलावा किसी और धर्म की इजाज़त नहीं होती है, जितने हिस्से या राज्य पर खलीफा राज करता है उसे अरबी भाषा में खिलाफा कहते हैं, खलीफा यानी इस्लामिक सुल्तान और खिलाफा यानी इस्लामिक राज्य।
भारत के मुसलमानों में आजादी की जगह तुर्की में इस्लामिक शासन को बचाने की चिंता थी
1919-22 के दौरान तुर्की में ओटोमन वंश के आखिरी सुन्नी खलीफा अब्दुल हमीद-2 का खिलाफा यानी शासन चल रहा था जो कि जल्दी ही धराशाई होने वाला था, इस आखिरी इस्लामिक खिलाफा (शासन) को बचाने के लिए अब्दुल हमीद-2 ने जिहाद का आवाहन किया ताकि विश्व के मुसलमान एक हो कर इस आखिरी खिलाफा यानी इस्लामिक शासन को बचाने आगे आएं, पूरे विश्व में इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई सिवाए भारत के। भारत के अलावा एशिया का कोई भी दूसरा देश इस मुहिम का हिस्सा नही बना, लेकिन भारत के कुछ मुट्ठी भर मुसलमान इस मुहिम से जुड़ गए और लाखों किलोमीटर दूर सात समंदर पार तुर्की के खिलाफा यानी इस्लामिक शासन को बचाने और अंग्रेज़ों पर दबाव बनाने निकल पड़े, जबकि इस समय भारत खुद गुलाम था और अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था, लेकिन अंतः 1922 में तुर्की से सुलतान के इस्लामिक शासन को उखाड़ फेंका गया और वहां सेक्युलर लोकतंत्र राज्य की स्थापना हुई और कट्टर मुसलमानों का पूरे विश्व पर राज करने का सपना टूट गया, इसी सपने को संजोए आजकल ISIS काम कर रहा है।
कांग्रेस ने चतुराई से इसका नाम खिलाफत आंदोलन रख दिया
भारत के चंद मुसलमानों ने अंग्रेज़ी हुकूमत पर दबाव बनाने के लिए बाकायदा एक आंदोलन खड़ा किया जिसका नाम था खिलाफा आंदोलन (Caliphate movement) अब क्योंकि अंग्रेज़ी में लिखे जाने पर इसका हिन्दी उच्चारण खलिफत होता है (अरबी में caliphate को khilafa=खिलाफा लिखते है) तो कांग्रेस ने बड़ी ही चतुराई से इसका नाम खिलाफत आंदोलन रख दिया ताकि देश की जनता को मूर्ख बनाया जा सके और लोगों को लगे कि यह खिलाफत आंदोलन अंग्रेज़ों के खिलाफ है, जबकि इसका असल मकसद यानी पूर्णतः धार्मिक था, इसका भारत की आज़ादी या उसके आंदोलन से कोई लेना देना नहीं थ। कुछ समझ में आया? कैसे शब्दों की बाज़ीगरी से जनता को मूर्ख बनाया जा रहा था, कैसे खलिफत को खिलाफत बताया जा रहा था, (ठीक वैसे ही जैसे Feroze Khan Ghandi (घांदी) को Feroze Gandhi (फ़िरोज़ गांधी) बना दिया गया)।
हेडगेवार ने इस आंदोलन का जमकर विरोध किया था
उस समय गांधी नेहरू की इस चाल को ज्यादा लोग समझ नहीं सके, लेकिन इन सब के बीच कांग्रेस में एक पढ़ा लिखा शख्स मौजूद था जिसका नाम था डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, इस शख्स ने इस आंदोलन का जम कर विरोध किया क्योंकि खिलाफा सिर्फ तुर्की तक सीमित नहीं रहना था, इसका उद्देश्य तो पूरे विश्व पर इस्लाम की हुकूमत कायम करना था जिसमें गज़वा-ए-हिन्द यानी भारत भी शामिल था। डॉ हेडगेवार ने कांग्रेस के गांधी और नेहरू को बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने, अंततः डॉ हेडगेवार ने कांग्रेस के इस खिलाफत आंदोलन का विरोध किया और कांग्रेस छोड़ दी। तो अब समझ लीजिए कि कांग्रेसी जो कहते हैं कि RSS ने आज़ादी के आंदोलन का विरोध किया था, तो वो असल में किस आंदोलन का विरोध था?
हेडगेवार इसी मुद्दे पर 1920 में कांग्रेस छोड़ दी
अगर आप डॉ हेडगेवार की जगह होते तो क्या करते? क्या आप भारत को गज़वा-ए-हिन्द यानी इस्लामिक देश बनते देखते? या फिर उन्हीं की तरह इसका विरोध करते? 1919 में खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ था और 1920 में डॉ हेगड़ेवार ने कांग्रेस छोड़ दी और सभी को इस आंदोलन के बारे में जागरूक किया कि इस आंदोलन का भारत की आज़ादी से कोई लेना देना नहीं है और यह एक इस्लामिक आंदोलन है, जिसका नतीजा यह हुआ कि यह आंदोलन बुरी तरह फ्लॉप साबित हुआ।
इस्लामिक हुकूमत धराशायी होने से बौखलाए मुसलमानों ने केरल के मालाबार में हिन्दुओं पर हमले किए, मारकाट की
1922 में आखिरी इस्लामिक हुकूमत धराशायी हो गयी, मुस्लिम नेता इस से बौखला गए और मन ही मन हिन्दुओं को अपना दुश्मन मानने लगे और इसका बदला उन्होंने 1922-23 में केरल के मालाबार में हिन्दुओं पर हमला कर के लिया और असहाय अनभिज्ञ हिन्दुओ को बेरहमी से काटा गया, हिन्दू लड़कियों की इज़्ज़त लूटी गई, जबकि इस आंदोलन का भारत या उसके पड़ोसी देशों तक से कोई लेना देना नहीं था।
1923 के दंगों में गांधी ने हिन्दुओं को ही दोषी ठहराते हुए कायर और बुजदिल कहा
1923 के दंगों में गांधी ने हिन्दुओ को दोषी ठहराते हुए हिन्दुओ को कायर और बुजदिल कहा था। गांधी ने कहा कि हिन्दू अपनी कायरता के लिए मुसलमानों को दोषी ठहरा रहे हैं, अगर हिन्दू अपने जान माल की सुरक्षा नहीं कर सकता तो इसमें मुसलमानों का क्या दोष? हिन्दुओं की औरतों की इज़्ज़त लूटी जाती है तो इसमें हिन्दू दोषी हैं, कहां थे उसके रिश्तेदार जब उस लड़की की इज़्ज़त लूटी जा रही थी? कुलमिला कर गांधी ने सारा दोष दंगा प्रभावित हिन्दुओ पर मढ़ दिया और कहा कि उन्हें हिन्दू होने पर शर्म आती है, जब हिन्दू कायर होगा तो मुसलमान उस पर अत्याचार करेगा ही।
…तब हेडगेवार ने 1925 में RSS की स्थापना की
डॉ हेडगेवार को अब समझ आ चुका था कि सत्ता के भूखे भेड़िये भारत की जनता की बलि देने से नहीं चूकेंगे, इसलिए उन्होंने हिन्दुओं की रक्षा और उनको एकजुट करने के उद्देश्य से तत्काल एक नया संगठन बनाने का काम शुरू कर दिया और अंततः 1925 में RSS की स्थापना हुई। आज अगर आप होली और दीवाली मानते हैं, आज अगर आप हिन्दू हैं तो सिर्फ उसी खिलाफत आंदोलन के विरोध और RSS की स्थापना की वजह से वरना जाने कब का गज़वा-ए-हिन्द बन चुका होता।