“प्रेम का दर्पन तुम्हारा रूप है।
बूँद का तर्पन तुम्हारा रूप है।
सुमुखि! झंकृत वेदना के तार है,
भाव प्रत्यर्पण तुम्हारा रूप है।
निशा का घूँघट उतारा भोर में,
नेह भर लायी नयन की कोर मे।
उषा के पट जब खुले मनुहार मे,
किरन का नर्तन तुम्हारा रूप है।
सजे बंदनवार घर-घर प्यार मे,
बज रही शहनाईयां हर द्वार मे।
भाव मे अनुगूँज सी छाने लगी,
शब्द का सर्जन तुम्हारा रूप है।
कर मधुर श्रृंगार महँकी हर कली,
स्नेह की मधु बूँद श्वासो मे घुली।
कुहुॅक कोयल की लिए अमराईयाँ,
भ्रमर का गुंजन तुम्हारा रूप है।
मन तरंगो में लिए अठखेलियां,
डगमगाने जब लगी हैं कश़्तियां।
स्नेह पारावार का प्रतिदर्श ले,
प्राण का स्यंदन तुम्हारा रूप है।।
भावना का ही जगत प्रतिरूप है,
नेह की मधुरिम विधा चिद्रूप है।
पुष्प की ज्यो साधना मकरंद है,
कृष्ण का अर्चन तुम्हारा रूप है।
जब कभी संघर्ष का आह्वान हो,
टूटता जब सत्य का प्रतिमान हो।
क्रान्ति पथ में भर सके हुंकार जो,
चक्र का कर्षन तुम्हारा रूप है।
प्रियंका द्विवेदी
मंझनपुर कौशाम्बी
उत्तर प्रदेश।.