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इस वर्ष भद्रा की स्थिति को देखते हुए देश में होली दो अलग-अलग दिन मनाई जाएगी। ज्योतिषियों और पंचांगकारों की गणना के अनुसार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि पर होलिका पूजन की मान्यता है। इस बार ६ मार्च को सोमवार के दिन मघा नक्षत्र व सुकर्मा योग तथा बव करण एवं सिंह राशि के चंद्रमा की साक्षी में होलिका के पूजन का मुहूर्त रहेगा। विशेष यह है कि होली के दिन प्रदोष काल में पूजन के समय वृश्चिकी भद्रा रहेगी। ज्योतिषियों के अनुसार, प्रदोष काल में होलिका की पूजन में भद्रा का दोष मान्य नहीं है। इसलिए शास्त्रोक्त मान्यता अनुसार, होलिका का पूजन करना श्रेष्ठ रहेगा। शुक्ल पक्ष में आनेवाली भद्रा को वृश्चिकी की संज्ञा दी गई है। कृष्ण पक्ष की भद्रा को सर्पिणी कहा जाता है। इसी तरह मतांतर से दिन की भद्रा सर्पिणी तथा रात्रि की भद्रा वृश्चिकी मानी गई है। इस दृष्टिकोण से सर्प के मुख में विष रहता है। अत: सर्पिणी भद्रा का मुख छोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार वृश्चिकी बिच्छू की पूंछ में विष रहता है इसलिए वृश्चिकी भद्रा की शुरुआत अर्थात शाम के समय पूजन किया जा सकता है। वैसे भी शास्त्रीय मान्यता तथा अन्य मत के अनुसार जब कोई विशेष अनुक्रम प्रदोष काल से ही संबद्ध हो तो उस समय उसको ग्राह्य कर लेना चाहिए। इस दृष्टि से प्रदोष काल में होलिका पूजन का कोई दोष नहीं है।
इस वर्ष फाल्गुन पूर्णिमा के दिन शाम को भद्रा लगने से होलिका दहन को लेकर दो दिन के मुहूर्त पर चर्चा हो रही है। कई राज्यों में फाल्गुन शुक्ल प्रदोषकाल व्यापिनी चतुर्दशी युक्त पूर्णिमा के दिन ६ मार्च की होलिका दहन होगा। अगले दिन ७ मार्च को रंगों की धुलंडी खेली जाएगी, जबकि पूर्वी हिंदुस्थान के राज्यों में होलिका दहन ७ मार्च को होगा और ८ मार्च को धुलंडी पर्व मनाया जाएगा।
देश में दो दिन होलिका दहन होगा
फाल्गुन पूर्णिमा ६ मार्च को शाम ४:१८ बजे प्रारंभ होगी, जो ७ मार्च को शाम ६.१० बजे तक रहेगी। सूर्यास्त शाम ६.१० बजे होगा, यह ६ मार्च को होलिका दहन सूर्यास्त शाम ६.१० बजे से पहले होगा। ज्योतिषविदों के अनुसार ७ मार्च को हिंदुस्थान के पूर्वी राज्यों में सूर्यास्त राम ६:१० बजे के पहले होगा। वहां दो दिन प्रदोष व्यापिनी होने से ७ मार्च को प्रदोष काल में होलिका दहन होगा। पश्चिम हिंदुस्थान में प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा ६ मार्च को ही मिल रही है। इसलिए पूरे राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर-पश्चिमी मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल सहित अधिकांश हिंदुस्थान में ६ मार्च को होलिका दहन होगा। इसके अगले दिन ७ मार्च को धुलंडी मनाई जाएगी।
जहां ७ मार्च को होलिका दहन होगा, उनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, उत्तर-पूर्वी झारखंड, बिहार, ओडिशा, असम आदि हिंदुस्थान के पूर्वी राज्यों में ७ मार्च को होलिका दहन होगा और इसके अगले दिन ८ मार्च को धुलंडी का त्योहार मनाया जायेगा। धर्मसिंधु शास्त्रानुसार होलिका दहन में भद्रा को टाला जाता है लेकिन भद्रा का समय यदि निशीथ काल (अर्द्धरात्रि) के बाद चला जाता है, तो होलिका दहन (भद्रा के मुख को छोड़कर) भद्रा पुच्छकाल या प्रदोष काल में करना चाहिए। ६ मार्च को प्रदोषकाल में पूर्णिमा शाम ६.२७ बजे से ६.३९ बजे तक रहेगी। पंचांग के अनुसार इस बीच शाम ४.१८ बजे से दूसरे दिन ७ मार्च को तड़के ५.१६ बजे तक भद्रा रहेगी।
भद्रा की उत्पत्ति
किंवदंती है कि दैत्यों को मारने के लिए भद्रा गर्दभ (गधा) के मुख, लंबी पूंछ और तीन पैर के साथ उत्पन्न हुई। भद्रा भगवान सूर्य नारायण और पत्नी छाया की पुत्री व यमराज और शनिदेव की बहन है। भद्रा, काले वर्ण, लंबे केश, बड़े दांत वाली तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। जन्म लेते ही भद्रा यज्ञों में विघ्न-बाधा पहुंचाने लगी और मंगल-कार्यों में उपद्रव करने लगी तथा सारे जगत को पीड़ा पहुंचाने लगी। उसके दुष्ट स्वभाव को देखकर सूर्य देव को उसके विवाह की चिंता होने लगी और वे सोचने लगे कि इस दुष्ट कुरूप कन्या का विवाह वैâसे हो पाएगा? सभी देवों ने सूर्य देव के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब सूर्य देव ने ब्रह्मा जी से उचित परामर्श लिया। इस पर ब्रह्मा जी ने विष्टि से कहा कि `भद्रे, बव, बालव, कौलव आदि करणों के अंत में तुम निवास करो तथा जो व्यक्ति तुम्हारे समय में गृह प्रवेश तथा अन्य मांगलिक कार्य करें, तो तुम उन्हीं में विघ्न डालो, जो तुम्हारा आदर न करे, उनका कार्य तुम बिगाड़ देना।’ इस प्रकार उपदेश देकर ब्रह्मा जी अपने लोक चले गए। तब से भद्रा अपने समय में ही देव-दानव-मानव समस्त प्राणियों को कष्ट देती हुई घूमने लगी। इस प्रकार भद्रा की उत्पत्ति हुई। भद्रा का दूसरा नाम विष्टि करण है। किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा योग का विशेष ध्यान रखा जाता है, क्योंकि भद्रा काल में मांगलिक कार्य या उत्सव का आरंभ या समाप्ति अशुभ मानी जाती है। अत: भद्रा काल की अशुभता को मानकर कोई भी शुभ कार्य नहीं करता। भद्रा की स्थिति में कुछ शुभ कार्यों, यात्रा और उत्पादन आदि कार्यों को निषेध माना गया।
भद्रा का महत्व
वैसे तो भद्रा का शाब्दिक अर्थ है कल्याण करनेवाली लेकिन इस अर्थ के विपरीत भद्रा या विष्टी करण में शुभ कार्य निषेध बताए गए हैं। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार, अलग-अलग राशियों के अनुसार भद्रा तीनों लोकों में घूमती है। जब यह मृत्युलोक में होती है, तब सभी शुभ कार्यों में बाधक या उनका नाश करनेवाली मानी जाती है। जब चंद्रमा कर्क, सिंह, कुंभ व मीन राशि में विचरण करता है और भद्रा विष्टी करण का योग होता है, तब भद्रा पृथ्वीलोक में रहती है। इस समय सभी शुभ कार्य वर्जित माने जाते हैं। इसके दोष निवारण के लिए भद्रा व्रत का विधान भी धर्मग्रंथों में अंकित किया गया है।
भद्रा की तिथियां और निवास
कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी और शुक्ल पक्ष की चर्तुथी, एकादशी के उत्तरार्ध में एवं कृष्णपक्ष की सप्तमी-चतुर्दशी, शुक्लपक्ष की अष्टमी-पूर्णमासी के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है। जिस भद्राकाल के समय चंद्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशि में स्थित तो भद्रा का निवास स्वर्ग में होता है। यदि चंद्रमा कन्या, तुला, धनु, मकर राशि में हो तो भद्रा पाताल में निवास करती है और कर्क, सिंह, कुंभ, मीन राशि का चंद्रमा हो तो भद्रा का भू-लोक पर निवास रहता है। पृथ्वी लोक की भद्रा सबसे अधिक अशुभ मानी जाती है। तिथि के पूर्वार्ध के दिन की भद्रा कहलाती है। तिथि के उत्तरार्ध की भद्रा को रात की भद्रा कहते हैं। यदि दिन की भद्रा रात के समय और रात्रि की भद्रा दिन के समय आ जाए तो भद्रा को शुभ मानते हैं। यदि भद्रा के समय कोई अति आवश्यक कार्य करना हो तो भद्रा की प्रारंभ की ५ घटी जो भद्रा का मुख होता है, उसे अवश्य त्याग देना चाहिए। भद्रा ५ घटी मुख में, २ घटी कंठ में, ११ घटी हृदय में और ४ घटी पुच्छ में स्थित रहती है। हिंदू पंचांग के पांच प्रमुख अंग तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण होते हैं। इनमें करण एक महत्वपूर्ण अंग होता है। यह तिथि का आधा भाग होता है। करण की संख्या ११ होती है। ये चर और अचर में बांटे गए हैं। चर या गतिशील करण में बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि गिने जाते हैं। अचर या अचलित करण में शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न होते हैं। इन ११ करणों में सातवें करण विष्टि का नाम ही भद्रा है। यह सदैव गतिशील होती है।