कॉलेजियम में पारदर्शिता नहीं, बिना काबिलियत के बने हैं कई जज : सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज चेलमेश्वर
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस जे चेलमेश्वर ने कहा कि कॉलेजियम बेहद अपारदर्शी तरीके से काम करता है। जजों के खिलाफ कोई आरोप सामने आता है तो अक्सर कोई कार्रवाई की ही नहीं जाती। उन्होंने कहा कि कॉलेजियम के सामने कुछ आरोप आते हैं लेकिन आमतौर पर कुछ नहीं किया जाता है। आरोप गंभीर हैं तो कार्रवाई होनी चाहिए। सामान्य समाधान सिर्फ जजों का ट्रांसफर करना है। उन्होंने ये भी कहा कि कुछ जज आलसी हैं और समय पर फैसले तक नहीं लिखते हैं। उन्हें फैसले लिखने में सालों लग जाते हैं। कई तो ऐसे हैं, जिन्हें काम ही नहीं आता है। कुछ जज अक्षम हैं। पूर्व जज चेलमेश्वर के इन बयानों से एक बार फिर जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम व्यवस्था पर सवाल खड़े हुए हैं। पीएम नरेंद्र मोदी ने न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक के जरिये इसमें सुधार करने की पहल की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे नकार दिया था। लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था को लेकर रह-रह कर उठते सवाल इसी ओर इशारा करते हैं कि न्यायिक नियुक्ति आयोग पर फिर से विचार किए जाने की जरूरत है।
कॉलेजियम की कार्यवाही रिकॉर्ड में नहीं रखी जाती
चेलमेश्वर भारतीय अभिभाषक परिषद की केरल हाई कोर्ट इकाई द्वारा आयोजित कोच्चि के केरल एचसी सभागार में एक संगोष्ठी में ‘क्या कॉलेजियम संविधान के लिए एलियन हैं?’ विषय पर बोल रहे थे। कॉलेजियम की कार्यवाही रिकॉर्ड करने के बारे में जज ने कहा, ‘मैं बहुत विवादास्पद रहा जब मैंने कहा कि कृपया कम से कम रिकॉर्ड में रखें कि आप जज को अस्वीकार, स्वीकार या स्थानांतरित क्यों कर रहे हैं। सच यह है कि कुछ भी रिकॉर्ड नहीं किया गया है। यानी इससे साफ होता है कि कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता नहीं है। कॉलेजियम सिस्टम से बनी भारतीय न्यायपालिका के लगातार संकट में पड़ने के बाद अब इस बात पर विचार होना चाहिए कि क्या इस सिस्टम में किसी सुधार की जरूरत है।
आलसी जजों के खिलाफ कॉलेजियम नहीं करती कार्रवाई
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने कुछ जजों को “आलसी” होने और फैसला लिखने में सालों लगा देने को लेकर फटकार लगाते हुए कहा कि उनके खिलाफ इस तरह के आरोप लगाए जाने के बावजूद कॉलेजियम अक्सर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता है। उन्होंने कहा, ‘कॉलेजियम के सामने कुछ आरोप आते हैं लेकिन आमतौर पर कुछ नहीं किया जाता है। आरोप गंभीर हैं तो कार्रवाई होनी चाहिए। सामान्य समाधान सिर्फ जजों का ट्रांसफर करना है। कुछ जज आलसी होते हैं और निर्णय लिखने में सालों-साल लग जाते हैं। कुछ जज अक्षम हैं।
पारदर्शिता की कमी से कॉलेजियम की बैठकों में भाग लेने कर दिया था इंकार
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले में अपने असहमतिपूर्ण फैसले में, चेलमेश्वर ने उच्चतम संवैधानिक न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में गोपनीयता और पारदर्शिता की कमी की आलोचना की थी। उन्होंने कॉलेजियम की बैठकों में तब तक भाग लेने से भी इनकार कर दिया था जब तक कि उनमें ट्रांसपेरेंसी का कुछ रिकॉर्ड नहीं बना लिया गया। चेलमेश्वर 22 जून 2018 को सर्वोच्च न्यायालय के दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए।
जजों की नियुक्ति में विविधता लाने की कोई व्यवस्था नहींः रिटायर्ड चीफ जस्टिस एनवी रमना
भारत में खुद जजों द्वारा जजों को नियुक्त करने की विवादित व्यवस्था – कॉलेजियम सिस्टम पर यूं तो सवाल उठते रहे हैं। लेकिन चेलमेश्वर से पहले सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एनवी रमना ने भी एक कॉन्फ्रेंस में कहा था कि ‘जजों की नियुक्ति में विविधता लाने की कोई व्यवस्था नहीं है।’ वे आगे कहते हैं कि ‘अभी जजों की नियुक्ति की जो व्यवस्था है, उससे दिक्कतें हो रही हैं जिसे हर कोई जानता है।’
सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम के तथ्यों पर एक नजर
चुनाव आयुक्तों के लिए पैनल तो जजों की नियुक्ति के लिए क्यों नहीं?
सुप्रीम कोर्ट ने हाल में चुनाव आयोग को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है। सर्वोच्च अदालत ने मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए पैनल बनाने का फैसला दिया। इस पैनल में प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता और चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया शामिल होंगे। यही पैनल मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों का चयन करेगी। हालांकि, अंतिम फैसला राष्ट्रपति का ही होगा। एक तबका सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लोकतांत्रिक बता रहा है तो वहीं सवाल उठता है कि यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया जजों की नियुक्ति में क्यों नहीं अपनाई जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में सरकार को चीफ़ जस्टिस (सीजेआई) और विपक्ष के नेता की भी राय लेनी पड़ेगी। यही सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति में कॉलेजियम सिस्टम चालू रखना चाहता है और चुनी हुई सरकार से कोई राय नहीं लेना चाहता। इसे आप क्या कहेंगे? यह दोहरा मानदंड क्यों? क्या आपको नहीं लगता कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयुक्तों के चयन के लिए जिस नई पवित्र, बेहतर और पारदर्शी व्यवस्था को तय किया है, क्या वैसी ही व्यवस्था हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए भी नहीं होनी चाहिए?
जजों के चयन के लिए फुल कोर्ट मीटिंग क्यों नहीं?
सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश और 33 न्यायाधीश होते हैं लेकिन न्यायपालिका के लिए अधिवक्ताओं का चयन 5 न्यायाधीशों के कॉलेजियम द्वारा ही किया जाता है! इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 160 न्यायाधीश हैं लेकिन न्यायपालिका के लिए अधिवक्ताओं का चयन 3 न्यायाधीशों के कॉलेजियम द्वारा ही किया जाता है! चयन के लिए फुल कोर्ट मीटिंग क्यों नहीं? फुल कोर्ट मीटिंग में सीधे तौर पर कोर्ट के सभी जज शामिल होते हैं। इस मीटिंग के दौरान सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वकालत करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ताओं के नाम भी तय किए जाते हैं।
जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम पूरी तरह पारदर्शीः सुप्रीम कोर्ट
कॉलेजियम सिस्टम का खुलकर बचाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम सबसे पारदर्शी है। सिस्टम अपना काम कर रहा है, उसे डीरेल करने की कोशिश ना करें। दिल्ली हाई कोर्ट ने सूचना के अधिकार अधिनियम (RTI) के तहत 2018 की एक कॉलेजियम बैठक की सूचना देने से इनकार कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एमआर शाह और सीटी रविकुमार की बेंच ने सुनवाई की और कहा- जो सिस्टम काम कर रहा है, उसे पटरी से ना उतारा जाए। कॉलेजियम को अपना काम करने दें। हम सबसे पारदर्शी संगठन हैं। कॉलेजियम के पूर्व सदस्यों के फैसलों पर टिप्पणी करना फैशन बन गया है।
जजों की नियुक्ति यानी राजशाही, मतलब- राजा का पुत्र ही राजा होगा
भारत में जजों की नियुक्ति के लिए जो कॉलेजियम सिस्टम फिलहाल काम कर रहा है वह परिपाटी विश्व के किसी भी प्रतिष्ठित देश में नहीं है। यह कुछ हद तक राजशाही की याद दिलाता है कि राजा का पुत्र ही राजा होगा। इस सिस्टम के तहत जज ही जजों को नियुक्त करता है। उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की वर्तमान व्यवस्था न तो संविधानसम्मत है और न ही लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने देश में भी 1993 से पहले कॉलेजियम व्यवस्था नहीं थी। 1993 से पहले कानून मंत्रालय ही नाम भेजता था।
कॉलेजियम सिस्टम से परिवारवाद और ‘अंकल कल्चर’ पनपा
बीते लंबे वक़्त से यह बहस समय-समय पर उठती रहती है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज चुने जाने की प्रक्रिया में भयंकर भाई-भतीजावाद है जिसे न्यायपालिका में ‘अंकल कल्चर’ कहते हैं, यानी ऐसे लोगों को जज चुने जाने की संभावना ज़्यादा होती है जिनकी जान-पहचान के लोग पहले से ही न्यायपालिका में ऊंचे पदों पर हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की, जो कि उचित नहीं
कोर्ट ने संविधान में लिखे शब्द ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की यानी विचार-विमर्श को मुख्य न्यायाधीश की ‘सहमति’ मान लिया। संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति न्यायाधीश से विचार-विमर्श कर नियुक्ति को मंजूरी देंगे या देंगी। लेकिन कॉलेजियम व्यवस्था ने राष्ट्रपति को उनके फैसले मानने को बाध्यकारी कर दिया है। 1993 में कॉलेजियम व्यवस्था जब अस्तित्व में आई तो उस समय देश की जनता ने इसका विरोध नहीं किया। लेकिन अब जबकि कॉलेजियम सिस्टम की बुराइयां उभरकर सामने आ गई हैं- परिवारवाद, आपसी खींचतान, जजों नियुक्ति में देरी, न्यायपालिका में फैसले देने की रफ्तार बेहद सुस्त पड़ने से न्यायपालिका की काफी बदनामी हुई है।
कॉलेजियम में जजों की नियुक्ति पर दांव-पेच उजागर, अदालत की साख गिरी
कुछ ही समय पहले की बात है जब चीफ जस्टिस यूयू ललित जिन चार जजों को नियुक्त करना चाहते थे, उसके लिए उन्होंने कॉलेजियम की बैठक बुलाई। पर जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ उस रोज रात 9 बजे तक मुकदमों की सुनवाई करते रहे। इस वजह से बैठक हो ही नहीं पाई। जस्टिस ललित ने चारों कॉलेजियम जजों से सहमति लेने के लिए पत्र भेजा, जिसका दो जजों ने विरोध कर दिया। इस बीच कानून मंत्रालय ने जस्टिस ललित से कहा कि वे अगले चीफ जस्टिस के लिए नाम भेजें। इसके बाद कॉलेजियम की बैठक करना मुमकिन नहीं था। इसलिए चार जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को खत्म कर दिया गया। ये बेहद अशोभनीय था और इससे कॉलेजियम के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर चलने वाले दांव-पेच उजागर हो गए।
अदालत को परिवारवाद से मुक्त करना चाहते हैं पीएम मोदी
परिवारवाद से देश को हुए नुकसान से भलीभांति परिचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार, विपक्ष और जानकारों को शामिल करके आयोग बनाने की व्यवस्था लाने की कोशिश की थी, इसके लिए संविधान संशोधन भी किया गया और नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन कानून, 2014 भी पारित किया गया। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था।
एक तिहाई से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति में परिवारवाद
देश की न्यायपालिका में एक तिहाई से अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय उनके पिता, चाचा या अन्य कोई रिश्तेदार न्यायापालिका के उच्च पदों पर रहा या राजनीति में रहा। ऐसा कहने का मतलब यह है कि न्यायपालिका में भी अधिकांश उन्हीं लोगों को प्रवेश मिलता है जिनके परिवार का कोई न कोई व्यक्ति न्यायपलिका या राजनीति में रहा हो।
उच्च न्यायालयों में न्यायधीशों की नियुक्ति के लिए विभिन्न उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम किस तरह से नियुक्ति करते हैं, इसका एक नमूना देखिए। वर्ष 2018 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने जिन वकीलों के नाम भेजे उनमें से आधे से अधिक व्यक्तियों के रिश्तेदार राजनीति या न्यायपालिका के ऊंचे पदों पर थे। यही हाल देश के अन्य उच्च न्यायालयों का भी है।
कॉलेजियम सिस्टम आज पूरी तरह फेल हो गई
कॉलेजियम सिस्टम आज पूरी तरह फेल हो गई है। किसी भी हालत में जजों को सियासत से दूर रखा जाना ज़रूरी है, जज ही जजों की नियुक्ति करें, ये भी ग़लत है। जजों की निष्ठा संविधान के लिए होनी चाहिए, न कि किसी व्यक्ति के लिए। साल 2015 में जब एनजेएसी को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया तो उस वक्त की जजों की पीठ ने माना कि कॉलेजियम की मौजूदा प्रणाली में दिक़्कतें हैं और उसे सुधारे जाने की ज़रूरत है। जब जजों ने ही कहा था कि इसे सुधारे जाने की जरूरत है तो फिर इसमें सुप्रीम कोर्ट ने सुधार क्यों नहीं किया। न तो वह खुद सुधार कर रही है और न ही सरकार को करने दे रही है।
विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश में यह व्यवस्था नहीं
कॉलेजियम व्यवस्था का निर्माण संविधान ने नहीं किया। इसका निर्माण स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने किया और ऐसा करके न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार पूरी तौर पर अपने हाथ में ले लिया। ऐसा विश्व के किसी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश-और यहां तक कि ब्रिटेन और अमेरिका में भी नहीं होता। आखिर जब किसी देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करते तो भारत में ऐसा क्यों होना चाहिए? न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था में इसलिए संशोधन-परिवर्तन किया जाना चाहिए, क्योंकि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को खारिज करते समय स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता रेखांकित की थी। आज देश नहीं जानता कि इस दिशा में कोई प्रगति क्यों नहीं हुई?
कॉलेजियम प्रणाली संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं
भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 सर्वोच्च और उच्च न्यायालय में क्रमशः न्यायाधीशों की नियुक्ति से सम्बद्ध हैं। परंतु कॉलेजियम प्रणाली संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम खुद सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम तय करती है। इन नामों को सरकार के पास भेजा जाता है और फिर सरकार के संबंधित विभाग आईबी आदि से क्लियरेंस के बाद इन नामों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाता है।
कॉलेजियम सिस्टम से पहले कानून मंत्रालय ही नाम भेजता था
कॉलेजियम सिस्टम से पहले जो नियुक्ति की प्रक्रिया थी, उसके तहत लॉ मिनिस्ट्री नामों को रेफर करती थी और फिर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया उस बारे में अपना विचार देते थे और तब उन्हें राष्ट्रपति के पास रेफर कर दिया जाता था। इस प्रक्रिया से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति होती थी।
कॉलेजियम सिस्टम 1993 में अस्तित्व में आया
1993 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने आदेश पारित किया और कॉलेजियम सिस्टम की शुरुआत की। हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए नाम भेजा जाता है। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और 4 सीनियर जज होते हैं। उन नामों पर विचार के बाद सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम नाम तय करती है और फिर उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस आरएस सोधी कहते हैं, “संविधान में जो लिखा है उसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति चीफ़ जस्टिस से ‘कंस्लटेशन’ करेंगे, न कि सहमति लेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में विचार-विमर्श को सहमति में बदल दिया। मैं मानता हूँ कि संसद सुप्रीम है और अगर आप किसी प्रोविजन से सहमत नहीं हैं तो आप उसे संसद में दोबारा विचार के लिए भेजिए या उसे रद्द कर दीजिए।”
सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, ये ‘हाइजैकिंग ऑफ़ पावर’
जस्टिस सोधी कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट खुद के लिए कानून नहीं बना सकता, इसे ‘हाइजैकिंग ऑफ़ पावर’ कहते हैं जो सुप्रीम कोर्ट को नहीं करना चाहिए था लेकिन उन्होंने किया। आपने फ़ैसले सुनाए और वो अधिकार अपने पास रख लिए जो आपके पास नहीं, संसद के पास होने चाहिए. मेरा मानना है कि संविधान में कहा गया है कि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेगा और सीजेआई से हर पहलू पर चर्चा होगी. लेकिन राष्ट्रपति संसद का मुखिया होता है और वह मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करता है, ऐसे में सीजेआई को सुपीरियर कैसे बनाया जा सकता है?”
कैसी पड़ी कॉलेजियम की बुनियाद
पहला केस 1981 का है जिसे एसपी गुप्ता केस नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए और इस बात की ओर इशारा किया गया कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए।
1993 में दूसरे केस में नौ जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में चीफ़ जस्टिस की राय को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए।
और फिर 1998 में तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पांच जजों का एक समूह बना दिया।
कॉलेजियम सिस्टम में खामियों के प्रमुख बिंदू
1. कॉलेजियम सिस्टम संविधान की व्यवस्थाओं के खिलाफ है क्योंकि जजों की नियुक्ति जजों का नहीं, सरकार का काम है. जजों द्वारा जजों की नियुक्ति का सिस्टम दुनिया में कहीं और नहीं है।
2. कॉलेजियम सिस्टम के कारण जजों के बीच आपसी पॉलिटिक्स होती है और जज फैसला लिखने से ज्यादा ध्यान इस बात पर लगाते हैं कि कौन जज बने. इस वजह से जजों के बीच गुटबाजी होती है और नियुक्तियों में देरी होती है।
3. इस सिस्टम में भाई-भतीजावाद है क्योंकि ज्यादातर जज अपने रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों की ही सिफारिश जज बनाने के लिए करते हैं।
4. कॉलेजियम सिस्टम आने से पहले यानी 1993 से पहले जो व्यवस्था थी, उससे बेहतर जज बन रहे थे और विवाद भी कम होता था।