‘ उधार का जिस्मों जान, उधार का मकान….
.वापसी निश्चित है, पल दो पल के हम तुम मेहमान….
लाशों की तरह अकड़े रहते हो,किस का बात है तुमको इतना गुमां…
यूँ उपहास न उड़ाओ दूसरों की मजबूरियों का…..
वक़्त रहता नहीं सब पर सदा मेहरबान….
तौबा कर ली बुतपरस्ती से जब मैंने…..
रूबरू हो गया ईश्वर, रहा न कोई फासला हमारे दरम्यान…..
माफ किया मैंने तुम्हें, तुम्हारी खतायों का क्या रखूँ हिसाब…..
मुहब्बत भी करते हो ऐसे , जैसे कर रहे हो अहसान……
अहंकार के चश्मे से दिखती हैं सदा दूसरे में खामियां…..
जख्मों पर नमक छिड़कने वाले , रुलायेंगे तुमको भी तुम्हारे ही अरमान…..
जिनकी फितरत में ही बेवफाई , नफरत, ज़लालत है…..
उनसे वफ़ा , मुहब्बत , शालीनता निभाना होता नहीं आसान…..
तथाकथित खुदाओं की बस्ती में , होड़ मची है श्रेष्ठता की…..
खुदा है हैरान, खामोशी से हँस रहा है सबका भगवान…।’
( स्वरचित….अनामिका ” अर्श ” )