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आज राष्ट्रीय सुरक्षा दिवस है तो बात राष्ट्रीय राजनीति की सुरक्षा की भी होनी चाहिए। कोई राजनैतिक दल चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो जाए, वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, भारत की राजनीति को असुरक्षित करने की ताकत हासिल नहीं कर सकता। २ मार्च को आए महाराष्ट्र के उपचुनावों के नतीजों ने यह साबित भी कर दिया। २ मार्च को कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव तो कुछ अन्य के उपचुनावों के नतीजे आए थे, परंतु इन सबमें, सबकी नजर किसी सीट मात्र पर टिकी थी, तो वह थी महाराष्ट्र की ब्राह्मण बहुल कसबा विधानसभा सीट। वो सीट, जहां २८ वर्षों से लगातार कमल खिलता आ रहा था। राज्य में जब भाजपा नेतृत्व की सरकार हो और उसमें भी सबसे सामर्थ्यवान नेता भी जब ब्राह्मण ही हो, तो कसबा में कमल के और जोरदार ढंग से खिलने के आसार थे। दावे भी वैसे ही किए जा रहे थे। हालांकि, हुआ इससे बिल्कुल उलट। कसबा में कमल कुम्हला गया… और ऐसा कुम्हलाया कि उसकी कुम्हलाहट उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के चेहरे पर भी साफ-साफ नजर आने लगी। वे सदन में बैठे तो थे, पर उनके मनोमस्तिष्क में कसबा की कशिश थी। उदास चेहरा, बेढाल शरीर और ऊर्जाहीन संवादों से वे हार की टीस को उजागर कर रहे थे। …और यह भी उजागर कर रहे थे कि कसबा की हार केवल ब्राह्मण वोटरों की नाराजगी का नतीजा नहीं है, बल्कि यह उनके जैसे ‘सामर्थ्यवान’ नेता को नकारने का भी संकेत है। यह पिछले कई महीनों से चल रही भाजपा की नकारात्मक राजनीति को आईना दिखाने का भी प्रतीक है। इस हार ने भाजपा को कम-से-कम यह तो बता ही दिया कि वो जो सोचती है, वो जो थोपती है, उसे आंख मूंदकर इस देश का मतदाता स्वीकार नहीं करेगा। खासकर, महाराष्ट्र का वोटर इस घिनौनी राजनीति को तो हर्गिज सहमति नहीं देगा। इस राज्य में जिसे भी राज करना होगा, तो वो राज-नीति से करना होगा। राजनीति की राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ करना होगा। अन्यथा, कसबा के रूप में अहंकार की हार के नतीजे सामने आते रहेंगे। अनीति की लगातार पराजय होती रहेगी और अराजकवादी सत्ता को मतपेटियों से चुनौती मिलती रहेगी। महाराष्ट्र खरीद-फरोख्त की राजनीति का धिक्कार करता रहा है और करता रहेगा। यहां की सुधि जनता सब जानती है। इसलिए भाजपा को चाहिए कि वो कसबा की हार को सिर्फ एक सीट का परिणाम न समझे, वरना २०२४ में इसकी परिणीति सामने आए बिना नहीं रहेगी।